First Act Review: स्कूल और स्टूडियो के बीच बच्चों की जिंदगी में झांकती डॉक्यु-सीरीज, भावुक करता है संघर्ष
First Act Review अमेजन प्राइम वीडियो की डॉक्यु-सीरीज में इंडस्ट्री के बाल कलाकारों की जिंदगी में करीब से झांकने की कोशिश की गई है। उनकी आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ सपनों की उड़ान और मजबूरियों को दिखाया गया है। ऑडिशन के कुछ दृश्यों के जरिए किशोरवय लड़कियों की मनोदशा का चित्रण किया गया है। सीरीज में सारिका समेत कई कलाकार अपने अनुभव साझा करते हैं।
एंटरटेनमेंट डेस्क, नई दिल्ली। First Act Review: सिनेमा और टीवी के पर्दे पर बच्चों की अदाकारी कई बार हैरत में डाल देती है। किसी खास परिस्थिति में उनकी भावाभिव्यक्ति देखकर लगता है कि आखिर कैसे यह अभिनय कर लेते हैं। मगर, पर्दे की उस सहजता के पीछे संघर्ष की एक लम्बी दास्तां होती है, जिसमें बच्चों के माता-पिता भी शामिल होते हैं।
बच्चों के संघर्ष को दिखाती डॉक्यु-सीरीज
अमेजन प्राइम वीडियो की डॉक्यु-सीरीज फर्स्ट एक्ट में हिंदी फिल्म और टीवी इंडस्ट्री में बाल कलाकारों की भूमिका रेखांकित करने के साथ इनके पर्दे तक पहुंचने के संघर्ष को दिखाया गया है।
डॉक्यु-सीरीज में कुछ बच्चों की संघर्ष यात्रा को केस स्टडी के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। रोजमर्रा की जिंदगी और पढ़ाई-लिखाई के बीच यह कैसे ऑडिशन और शूटिंग के लिए वक्त निकालते हैं, सीरीज इसे अपने कथ्य में लेकर चलती है।
चाइल्ड आर्टिस्ट्स की आपाधापी को करीब से दिखाने वाली सीरीज कई बार भावुक भी करती है और उनके प्रति सहानुभूति जगाती है। बाल कलाकारों के तौर पर अभिनय करियर शुरू करने वाले कलाकारों के जरिए विभिन्न दौर में चाइल्ड आर्टिस्ट्स के संघर्ष के स्तर का अंदाजा लगता है।
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सीरीज में दिल्ली-मुंबई के परिवारों के सपने
पहले एपिसोड की शुरुआत कुछ बच्चों के ऑडिशन दृश्यों से होती है और इसके साथ ही डॉक्यु-सीरीज का मूड सेट हो जाता है। इन दृश्यों से यह स्थापित हो जाता है कि आगे के एपिसोड्स में क्या पेश आने वाला है। छह एपिसोड्स की डॉक्यु-सीरीज का निर्देशन दीपा भाटिया ने किया है। उन्होंने सीरीज को लिखा भी है।
दीपा ने डॉक्यु-सीरीज में दिल्ली और मुंबई के परिवारों के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया है। दिल्ली के बुराड़ी इलाके से माता-पिता बच्चे के एक्टर बनने के सपने को पूरा करने के लिए मुंबई रीलोकेट होते हैं। अंधेरी पश्चिम का महंगा किराया उन्हें कांदिवली, मलाड लेकर जाता है। जहां स्टूडियो का लम्बा सफर और उनका एडजस्टमेंट मिडिल क्लास परिवारों की सपनों को पूरा करने के लिए जद्दोजहद दिखाता है।
सीरीज में अलग-अलग दौर का प्रतिनिधित्व करने वाले बाल कलाकारों के अनुभवों के जरिए हर वक्त में उनकी अहमियत और दिक्कतों की बात की गई है।
साठ के दौर की बाल कलाकार सारिका, अस्सी के दशक में डेब्यू करने वाले जुगल हंसराज (मासूम), नब्बे के दौर में फिल्में करने वाले परजान दस्तूर (कुछ कुछ होता है) और 2000 के स्टार बाल कलाकार दर्शील सफारी (तारे जमीं पर) अपने-अपने वक्त के किस्से सुनाते हैं।
बाल कलाकारों को कभी-कभी ऑडिशन के दौरान असहज परिस्थितयों का सामना करना पड़ता है। कुछ ऐसे दृश्यों के लिए ऑडिशन देने पड़ते हैं, जिन्हें करने में वो सहज नहीं होते। वो माता-पिता से कहते हैं कि पहले रोल के बारे में जानकारी ले लेना बेहतर है।
अलग-अलग दौर के बाल कलाकारों के अनुभव
सारिका बताती हैं कि बाल कलाकार के तौर पर वो काफी बिजी रहती थीं। बैक-टू-बैक शूटिंग रहती थी। यह स्थिति तब थी, जबकि बच्चों के किरदार सीमित होते थे। अब तो हालात काफी बदल गये हैं और बच्चों के लिए काफी काम है। परजान दस्तूर बताते हैं कि कैसे सेट पर उनका ख्याल रखा जाता था।
वहीं, जुगल हंसराज के मुताबिक, वो सेट पर किसी हीरो से कम नहीं थे। निर्देशक शेखर कपूर उनका पूरा ख्याल रखते थे। अगर वो आवाज लगा दें तो सबसे पहले पहुंचने वाले शेखर ही होते थे। दर्शील बचपन की सफलता के बाद बड़ा होने पर खालीपन को रेखांकित करते हैं।
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दीपा ने कहीं भी वॉइसओवर का इस्तेमाल नहीं किया है। इसकी वजह से कहीं भी विजुअल ब्रेक महसूस नहीं होता। कहानी दृश्य-दर-दृश्य भागती रहती है।
इससे रफ्तार तो बनी रहती है, मगर किस बच्चे की कहानी चल रही है, इसे याद रखने के लिए दिमाग पर जोर लगाना पड़ता है। अमोल गुप्ते शो के एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं, जिन्होंने दर्शील के साथ तारे जमीं पर में काम किया था। तकनीकी स्तर पर बात करें तो सिनेमैटोग्राफी ने भावनाओं को कैप्चर करने में काबिले-तारीफ काम किया है।