72 Hoorain Review: खुशियां जन्नत में नहीं, इसी जिंदगी में हैं! आतंकवाद पर झकझोरने वाले सवाल पूछती '72 हूरें'
72 Hoorain Movie Review आतंकी घटनाओं से पूरी दुनिया आहत है। आखिर कैसे लोग इसके चंगुल में फंस जाते हैं और अपनी सोच से भटक जाते हैं। आखिर कैसे दूसरों के साथ वो खुद अपनी जिंदगी खत्म करने के लिए तैयार हो जाते हैं फिल्म ऐसे सवालों पर रोशनी डालती है। 72 हूरें मुख्य रूप से विचारोत्तेजक फिल्म है जिसका ट्रीटमेंट सीधा रखा गया है।
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए आतंकी धर्म की आड़ में लोगों की मासूमियत का फायदा उठाते हैं। उनकी धार्मिक भावनाओं को भड़काकर, बड़े-बड़े सपने दिखाकर और उन्हें गुमराह करके आतंक की राह पर चलने को मजबूर करते हैं।
जिहाद के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले आखिर अपने मंसूबों में कैसे कामयाब हो रहे हैं? वो मासूम लोगों को कट्टर बनाने के लिए किस तरह का लालच देते हैं। अपनी किस विचारधारा से उन्हें प्रभावित करते हैं कि ईश्वर की दी जिंदगी के प्रति उनका मोहभंग हो जाता है। वे आतंकी बनने को तैयार हो जाते हैं।
ऐसे ही कुछ सवालों को विवादों से घिरी फिल्म 72 हूरें में खंगालने की कोशिश हुई है। पाकिस्तान पोषित आतंकवाद किस तरह से लोगों को गुमराह कर रहा है, संजय पूरण सिंह चौहान निर्देशित यह फिल्म उस पर केंद्रित है।
कहानी को दो आतंकियों के नजरिए से दिखाया गया है। यह फिल्म आतंकी बनने के कारणों पर प्रहार करती है। खास बात यह है कि यह किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत नहीं करती है। फिल्म मूल रूप से ब्लैक एंड व्हाइट में बनी है।
दो मर चुके आतंकियों के नजरिए से कहानी
72 हूरें का आरंभ मौलाना सादिक (राशिद नाज) के उपदेशों से होता है। वह अपने अनुयायियों को बताते हैं कि जिहाद का उन्होंने जो रास्ता चुना है, वह सीधे उन्हें जन्नत में ले जाएगा। जन्नत में जाने पर 72 हूरें उन्हें इनाम में बख्शी जाएंगी। उनके अंदर चालीस लोगों की ताकत आ जाएगी। वहां से कहानी मुंबई आती है।
हामिद (पवन मल्होत्रा) और बिलाल (आमिर बशीर) आतंकी गतिविधियों पर बात कर रहे होते हैं। ज्यादा इंतजार न कराते हुए निर्देशक स्पष्ट कर देते हैं कि मुंबई में हुए विस्फोट में दोनों मारे जा चुके हैं। दोनों की भटकती रूहें 72 हूरों का इंतजार कर रही हैं। इनके सब्र की सीमा तब टूटती है, जब एक भी हूर उन्हें नहीं मिलती।
उन्हें लगता है कि उनके जनाजे की नमाज न होने की वजह से जन्नत के दरवाजे नहीं खुले हैं। इस तरह 169 दिन गुजरते हैं। इस दौरान दोनों की रूह किन सच्चाइयों से रूबरू होती हैं। उन्हें अपना सच कैसे समझ आता है कहानी इस संबंध में है।
मासूमों का कैसे होता है ब्रेनवॉश?
मासूम लोगों को किस प्रकार आतंक की राह पर आने के लिए बरगलाया जाता है, उसका चित्रण समुचित तरीके से किया गया है। एक सीन में अजन्मे बच्चे को लेकर बिलाल का उसके सवालों का जवाब न देने पाने का दृश्य झकझोरता है। इसी तरह धर्म की असल शिक्षा क्या है, उसे भी खूबसूरती से बताया गया है।
फिल्म को बनाने के पीछे संजय पूरण सिंह चौहान की नीयत और मकसद सही है। उन्होंने अनावश्यक भाषणबाजी से परहेज किया है। फिल्म हाकिम के प्यार की झलक देती है, लेकिन बिलाल के पक्ष की ज्यादा जानकारी नहीं देती। उनके आसपास के माहौल को न बताने की थोड़ी कमी महसूस होती है।
फिल्म में विस्फोट के बाद क्षत-विक्षत शवों के दृश्य विचलित कर देने वाले हैं। यह आतंक का वो वीभत्स रुप दिखाते हैं, जिसे देखकर रूह कांप जाती है। इसमें मारे गए अपनों की पीड़ा को एक लड़की के जरिए दर्शाया गया है। रेलवे ट्रैक पर आत्महत्या करने गई इस लड़की की मां उससे कहती है, खुदकुशी करना हराम है।
उसके बाद दोनों आतंकियों के बीच की बहस का दृश्य तार्किक और तर्कसंगत है। मूल रूप से ब्लैक एंड व्हाइट में बनी इस फिल्म में आतंक के चेहरे और मनोभावों को सिनेमैटोग्राफर चिरंजन दास ने सहजता से दर्शाया है।
पवन मल्होत्रा का बेहतरीन अभिनय
पवन मल्होत्रा मंझे हुए कलाकार हैं। उन्होंने हाकिम की मनोदशा, लालच और निराशा को बहुत संजीदगी के साथ दर्शाया है। आमिर बशीर ने आतंकी के भावों और पछतावे की भावना को शिद्दत साथ जीया है। एक घंटा 20 मिनट की यह फिल्म संजीदा विषय को निडरता के साथ पेश करती है।
आखिर में कुरान की आयत के साथ लिखा गया है कि एक निर्दोष इंसान की हत्या पूरी मानव जाति की हत्या के बराबर है। फिल्म अप्रत्यक्ष रूप से संदेश देती है, आतंक का लाल रंग कभी खुशियां नहीं ला सकता। यह सिर्फ तकलीफ दे सकता है। खुशियां जन्नत में नहीं, इस जिंदगी में हैं।
कलाकार: पवन मल्होत्रा, आमिर बशीर आदि।
निर्देशक: संजय पूरण सिंह चौहान
अवधि: एक घंटा 20 मिनट
स्टार: तीन