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    विधानसभा चुनाव 2017: पीडीएफ का पैमाना केवल हरदा

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Thu, 02 Feb 2017 07:15 AM (IST)

    उत्‍तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में पीडीएफ के अलग-अलग समूह के विधायकों के मामले में पार्टी के फैसले तय करने का पैमाना अगर कोई है तो वह भी हरदा ही रहे हैं।

    विधानसभा चुनाव 2017: पीडीएफ का पैमाना केवल हरदा

    देहरादून, [राज्य ब्यूरो]: कांग्रेस सरकार अपने पूरे कार्यकाल प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी पीडीएफ के जिस मुद्दे से जूझती रही, अब चुनाव के मौके पर भी उससे पीछा छूटता नजर नहीं आ रहा है। ये पीडीएफ का दबाव ही रहा कि कांग्रेस को पहले सरकार चलाने के लिए मंत्रियों की संख्या तय करने और अब चुनाव के मौके पर भी अपने स्टैंड से पलटना पड़ा है।

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    पार्टी को सभी 70 सीटों पर उत्तराखंड विधानसभा चुनाव लड़ने के मामले में बैकफुट पर आना पड़ा, साथ ही टिहरी जिले की जिस धनोल्टी सीट पर प्रत्याशी घोषित किया गया, पीडीएफ की आपत्ति के बाद उसे मैदान से हटाने की नौबत आ गई। खास बात ये है कि दबाव भले ही पीडीएफ का हो, लेकिन इस मामले में पार्टी को नतमस्तक अपने मुख्यमंत्री हरीश रावत के सामने होना पड़ा। इससे ये भी जाहिर हुआ कि पीडीएफ के अलग-अलग समूह के विधायकों के मामले में पार्टी के फैसले तय करने का पैमाना अगर कोई है तो वह भी हरदा ही रहे हैं।

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    दरअसल, प्रदेश के सत्तारूढ़ दल कांग्रेस की अंदरूनी सियासत पर सबसे ज्यादा असर डालने वाला मुद्दा पीडीएफ ही बनकर उभरा है। तीन निर्दलीय विधायकों, बसपा के पहले तीन फिर दो और उक्रांद के एक विधायक के इस संयुक्त मोर्चे ने पहले कांग्रेस की सरकार बनाई तो फिर आखिरी पांचवें साल में कांग्रेस के भीतर बगावत के बाद सरकार को बचाने में भी अहम भूमिका।

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    बावजूद इसके संकटमोचक पीडीएफ को ही कांग्रेस की अंदरूनी सियासत को उलझाकर गरमाए रखने और संकट पैदा करने का जिम्मेदार भी माना जाता है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय पीडीएफ को लेकर सरकार के रुख पर सवाल उठाते रहे। पार्टी के भीतर उपजे असंतोष ने धीरे-धीरे सुलगते हुए बगावत का रूप भी धरा, लेकिन पीडीएफ पर संगठन की आवाज नक्कारखाने में तूती से ज्यादा कुछ नहीं बन पाई।

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    पीडीएफ ने जो चाहा, पाया

    वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में पीडीएफ से जुड़े विधायक अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस के ही दमदार प्रतिद्वंद्वियों को हराकर जीते। बाद में किस्मत का पासा देखिए, ऐसे पलटा कि कांग्रेस प्रत्याशियों को हराने वाले ही प्रदेश की कांग्रेस सरकार के खेवनहार बन गए। इसके एवज में पीडीएफ ने मंत्रिमंडल में अपनी बड़ी संख्या के तौर पर पूरी कीमत भी वसूली। बाद में मंत्री बने ये ही विधायक अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में पहले सत्ता में रहते हुए और अब चुनाव के मौके पर पार्टी के दिग्गज नेताओं के लिए परेशानी का सबब बन गए। पीडीएफ के दो मंत्री कांग्रेस का टिकट पाने में सफल रहे तो दो निर्दलीय के रूप में कांग्रेस पर ही हावी दिखाई दे रहे हैं।

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    पीडीएफ पर भारी हरदा का जलवा

    पीडीएफ के इस दबाव समूह से पूरे पांच साल प्रदेश कांग्रेस संगठन भले ही परेशान रहा, लेकिन मुख्यमंत्री हरीश रावत बेहद चतुराई से इसका अपने पक्ष में इस्तेमाल करने में सफल रहे। यही बात सरकार और संगठन में तनातनी और रस्साकसी की वजह भी बनी। लेकिन, हर बार पीडीएफ के मुद्दे पर संगठन पर सरकार ही हावी रही। इसे हरदा का जलवा ही कहेंगे कि इस मामले में हुआ भी वही, जैसा उन्होंने चाहा।

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    संगठन ने ऐन वक्त पर इस दबाव समूह को पार्टी से ही जोडऩे के लिए सभी 70 सीटों पर चुनाव लडऩे का दांव चला। लेकिन धनोल्टी सीट पर पहले प्रत्याशी घोषित करने के बाद पलटी मारने से ये दांव भी उलटा पड़ता दिख रहा है। इस दांव में भी हरदा ही पार्टी पर भारी पड़े। हालांकि, इससे पार्टी के भीतर नए तरीके से असंतोष सिर उठाता भी दिख रहा है। धनोल्टी सीट से कांग्रेस प्रत्याशी मनमोहन मल्ल इसे अपनी राजनीतिक हत्या की साजिश करार दे चुके हैं।

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    पीडीएफ पर अलग-अलग सुर

    पीडीएफ के विधायकों की सियासी हैसियत देखकर हरदा की रणनीति भी अलग-अलग रही। संकट में पीडीएफ का साथ मिलने पर इन विधायकों को पार्टी का टिकट या उनके खिलाफ पार्टी प्रत्याशी खड़ा नहीं करने का भरोसा दिलाया गया। इस मामले में पीडीएफ से जुड़े दो मंत्रियों मंत्री प्रसाद नैथानी और हरीशचंद्र दुर्गापाल की इच्छा के मुताबिक पार्टी ने अपने साथ ले लिया। धनोल्टी सीट पर कांग्रेस के मजबूत प्रत्याशी सामने आने के बाद पीडीएफ से जुड़े मंत्री प्रीतम पंवार की चली।

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    उन्होंने समर्थन मांगा तो पार्टी ने उन्हें झटपट समर्थन दे डाला। लेकिन टिहरी सीट पर निर्दलीय खम ठोक रहे पीडीएफ से जुड़े मंत्री दिनेश धनै के खिलाफ पार्टी प्रत्याशी मैदान में बदस्तूर खड़ा हुआ है। पीडीएफ से जुड़े अन्य विधायक हरिदास बसपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए, लेकिन संकट के इस साथी को पार्टी का टिकट नहीं मिल पाया। यही नहीं, पीडीएफ से जुड़े बसपा के मंगलौर से विधायक सरबत करीम अंसारी के खिलाफ कांग्रेस ने अपने मजबूत उम्मीवार के रूप में काजी निजामुद्दीन को मैदान में उतारा है।

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