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भोपाल जीतने के लिए कांग्रेस की रणनीति है बड़ी दिलचस्‍प, यहां दिग्विजय के सामने हैं प्रज्ञा

भाजपा प्रत्याशी बनने से पहले ही साध्वी इस बात पर अधिक जोर दे रही हैं कि दिग्विजय सिंह ने हिंदू धर्म की छवि पूरे विश्व में खराब की है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 19 Apr 2019 08:40 AM (IST)Updated: Fri, 19 Apr 2019 01:29 PM (IST)
भोपाल जीतने के लिए कांग्रेस की रणनीति है बड़ी दिलचस्‍प, यहां दिग्विजय के सामने हैं प्रज्ञा
भोपाल जीतने के लिए कांग्रेस की रणनीति है बड़ी दिलचस्‍प, यहां दिग्विजय के सामने हैं प्रज्ञा

आशीष व्यास, भोपाल। क्या भोपाल किसी धर्मयुद्ध का साक्षी बनने जा रहा है? यदि साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की बात मानें तो यह सौ फीसद सच है! भाजपा प्रत्याशी बनने से पहले ही साध्वी इस बात पर अधिक जोर दे रही हैं कि दिग्विजय सिंह ने हिंदू धर्म की छवि पूरे विश्व में खराब की है। भगवा ध्वज को आतंकवाद का रूप बताया, साधु-संतों और आध्यात्मिकता पर अनर्गल प्रलाप किया। यहां तक कि राष्ट्रधर्म को भी कलंकित कर दिया है। उनके इस्लामदर्शन को देश भलीभांति जानता है...।

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बुधवार को भाजपा द्वारा साध्वी को भोपाल सीट का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद से राजधानी के राजनीतिक गलियारों में भले ही खामोशी छा गई है, लेकिन गली-मोहल्लों में हिंदू-मुस्लिम रुझानों पर खुली बहस शुरू हो गई है। दरअसल, प्रज्ञा सिंह के माध्यम से हिंदू कार्ड खेलकर भाजपा ने इस सीट पर सीधा-सीधा ध्रुवीकरण कर दिया है। इसलिए दोनों उम्मीदवारों (कांग्रेस से दिग्विजय सिंह और भाजपा से साध्वी) की खूबियों-खामियों तक पहुंचने से पहले राजा भोज की बसाई इस भोजपाल नगरी की बुनियाद को भी समझना चाहिए। चार बेगमों के शासनकाल के बाद भोपाल बनकर उभरने तक की यात्रा में अब 21.08 लाख मतदाता शामिल हैं। इसमें चार लाख 50 हजार मुस्लिम वोटर हैं। आठ विधानसभाओं में से दो सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या अधिक है। इसे यूं भी समझ सकते हैं कि 30 साल तक भोपाल सीट पर भाजपा का कब्जा रहने के कारण हिंदू-मुस्लिम मानसिकता पहले से ही काम कर रही है।

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कांग्रेस की शुरुआती रणनीति यह हो सकती है कि वह आठ विधानसभा सीटों में से चार पर निर्णायक बढ़त ले। ये सीटे हैं- भोपाल उत्तर, भोपाल मध्य, बैरसिया और सीहोर। दक्षिण-पश्चिम सीट पर मामला बराबरी का हो सकता है, जबकि गोविंदपुरा, हुजूर और नरेला में भाजपा को बढ़त मिल सकती है। विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच लगभग 67 हजार वोटों का अंतर था। अब एक और आंकड़े पर नजर डालते हैं। भोपाल में साक्षरता का फीसद 82 है।

यह जागरूक जनमत ही तय करेगा कि उनका वोट हिंदू-आतंकवाद जैसे शब्द को जन्म देने वाले पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के लिए है या फिर मालेगांव ब्लास्ट से बरी होने वाले मुखर हिंदूवादी चेहरे साध्वी प्रज्ञा सिंह के लिए। जो लोग प्रज्ञा सिंह को राजनीतिक संघर्ष में कमजोर आंक रहे हैं, उन्हें यह कहानी नई लग सकती है। 12वीं में पढ़ाई के दौरान जब वे विद्यार्थी परिषद से जुड़ी थीं। उन्हीं दिनों भिंड जिले के कस्बे लहार में सरकारी अस्पताल की हालत ठीक नहीं थी। किसी ने उनसे घर जाकर शिकायत की, कि अस्पताल में न डॉक्टर हैं और न ही साफ-सफाई। तब अपनी एक दर्जन सहेलियों को साथ लेकर प्रज्ञा ने अस्पताल के सामने धरना-आंदोलन किया।

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उन दिनों इस तरह का संघर्ष लहार ही नहीं, बल्कि भिंड जिले में पहला था, जिसमें केवल लड़कियां ही शामिल थीं। इसके बाद न केवल डॉक्टर आए, बल्कि व्यवस्थाएं भी ठीक हुईं। साध्वी के संघर्ष का यह सफर स्कूल से लेकर कॉलेज तक जारी रहा। इस दौर में सहेली या किसी भी लड़की की तरफ यदि किसी ने गलत तरीके से देख भी लिया तो वह उसे तत्काल सबक सिखा देती थीं। आयुर्वेद रत्न प्राप्त पिता लहार में संघ का काम देखते थे। इसलिए संघ और अनुषांगिक संगठनों के प्रति स्वाभाविक आकर्षण था।

बताया जा रहा है कि पहला चुनाव लड़ रहीं प्रज्ञा सिंह के नाम पर सहमति बनाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अहम भूमिका निभाई है। इस सीट से उमा भारती, नरेंद्र सिंह तोमर, शिवराज सिंह चौहान जैसे नामों पर खासी मशक्कत हुई, लेकिन अंतत: संघ ने प्रज्ञा का नाम बढ़ाया। भाजपा के रणनीतिकार मानते हैं कि दिग्विजय सिंह की हिंदू विरोधी छवि के कारण वोटों का ध्रुवीकरण हो सकता है, क्योंकि मालेगांव ब्लास्ट के आरोप से बरी होने के बाद साध्वी प्रज्ञा हिंदुत्व के चमकदार चेहरे के रूप में उभरी हैं। माना यह भी जा रहा है कि अगर दिग्विजय सिंह हिंदू आतंकवाद पर सवाल उठाकर साध्वी प्रज्ञा पर हमले का प्रयास करेंगे, तो भाजपा को उसका परंपरागत मुद्दा देकर अपना ही नुकसान कर बैठेंगे।

बहरहाल, चुनौतियों के राजा माने जाने वाले दिग्विजय सिंह 16 साल बाद मैदानी चुनाव में हैं और साध्वी की तुलना में पहले से सक्रिय भी हैं। यह इसलिए भी स्वाभाविक है कि 2003 में विधानसभा हारने के बाद चुनाव से स्व-निर्वासन का निर्णय उन्हीं का था और अब मुख्यमंत्री कमलनाथ की कठिन-सीट से लड़ने की चुनौती को मानने का फैसला भी उन्हीं का है। कभी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का सलाहकार रहा मध्य प्रदेश की राजनीति का यह अनुभवी चेहरा एक ऐसी राजनीतिक लड़ाई लड़ रहा है, जिसमें जीत ही एकमात्र विकल्प है!

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