चीन ने अपने नए मानचित्र में अरुणाचल प्रदेश को अपने हिस्से के रूप में दिखाकर यही स्पष्ट किया कि उसकी भारत से संबंध सामान्य करने में कोई रुचि नहीं। इसके पहले वह अरुणाचल के कुछ हिस्सों का नामकरण चीनी भाषा में कर चुका है। इसी तरह हाल में उसने अरुणाचल के कुछ खिलाड़ियों को नत्थी वीजा जारी करने की हिमाकत की थी, जिसके विरोध में भारत ने अन्य खिलाड़ियों को भी चीन जाने से रोक दिया था।

हम यह भी नहीं भूल सकते कि चीन किस बेशर्मी के साथ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के कुख्यात आतंकी सरगनाओं को प्रतिबंधित करने की पहल नाकाम कर चुका है। पाखंड की इससे बड़ी कोई मिसाल नहीं हो सकती कि कोई देश खुद को आतंकवाद का विरोधी भी बताए और आतंकी सरगनाओं का बचाव भी करे।

अपनी आर्थिक शक्ति के नशे में चूर अहंकारी चीन अंतरराष्ट्रीय नियम-कानूनों को जिस तरह धता बता रहा है, उससे वह विश्व व्यवस्था के लिए खतरा ही बन रहा है। अब यह भी किसी से छिपा नहीं कि वह गरीब देशों को किस तरह कर्ज के जाल में फंसाकर उनका शोषण कर रहा है। चीन ने अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अनदेखी कर जिस तरह अपने नए नक्शे में दक्षिण चीन सागर को भी शामिल कर लिया, वह उसकी उपनिवेशवादी मानसिकता का ही परिचायक है।

चीन के मनमाने रवैये को पश्चिमी देश अच्छे से महसूस भी कर रहे और उनके पक्ष-विपक्ष के नेता एक सुर में उसकी हरकतों के खिलाफ आवाज भी उठा रहे। इसके विपरीत भारत में अलग स्थिति है। अपने देश के कई नेता चीनी सेना के अतिक्रमणकारी रवैये को लेकर मोदी सरकार को तो कठघरे में खड़ा करते हैं, लेकिन चीन के प्रति एक शब्द भी नहीं बोलते। इस मामले में राहुल गांधी सबसे आगे हैं। वह बार-बार ऐसे मिथ्या आरोप लगाते हैं कि चीन ने हमारी जमीन हड़प ली है और प्रधानमंत्री कुछ नहीं कर रहे हैं। समझना कठिन है कि वह चीन को रास आने वाली बातें क्यों करते हैं? कहीं इसलिए तो नहीं कि कांग्रेस और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक समझौता कर रखा है?

कांग्रेस ने न तो यह बताया कि यह समझौता क्यों किया गया था और न ही यह कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी दूतावास से चंदा लेने की क्या जरूरत थी? यह ठीक है कि भारत ने चीन की ताजा हरकत पर दो टूक कहा कि अरुणाचल हमारा अभिन्न अंग है और रहेगा, लेकिन उसे कुछ और भी करना होगा, क्योंकि चीन कहता कुछ है और करता कुछ है।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हाल में ब्रिक्स सम्मेलन में चीन ने किस तरह पहले अपने राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री के बीच वार्ता का अनुरोध किया और फिर इससे मुकर गया। समय आ गया है कि भारत एक ओर जहां तिब्बत को लेकर मुखर हो, वहीं दूसरी ओर ताइवान से भी संबंध बढ़ाए।