यह अच्छा है कि बीआर गवई जबसे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने हैं, तबसे वह लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं, जो संविधान की महत्ता के साथ सरकारी तंत्र और न्यायिक तंत्र में सुधार की आवश्यकता रेखांकित करते हैं। आवश्यक केवल यह नहीं है कि विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्वों को निर्वहन सही ढंग से करें और जनाकांक्षाओं को समझें।

आवश्यक यह भी है कि न्यायपालिका भी देश के लोगों की अपेक्षाओं पर खरी उतरे। इसकी आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि न्यायिक सक्रियता कई बार न्यायिक अति में बदलती दिखती है। कुछ वर्ष पहले खेती और किसानों की भलाई के लिए लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों की समीक्षा किए बिना उनके अमल पर रोक लगा दी थी।

संसद से बने किसी कानून पर रोक तो उसकी संवैधानिकता की परख करने के बाद ही लगनी चाहिए। इस मामले में ऐसा नहीं हुआ। इससे कृषि कानून विरोधियों के बीच यह संदेश गया कि इन कानूनों में कोई खोट है और वे सड़कों पर धरना-प्रदर्शन करते रहे। इसके चलते मोदी सरकार न चाहते हुए भी इन कानूनों को वापस लेने को बाध्य हुई।

इससे किसानों और विशेष रूप से छोटे किसानों का अहित ही हुआ। इस मामले में एक खराब बात यह भी हुई कि सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों के अध्ययन के लिए अपनी ओर से किसान नेताओं एवं कृषि विशेषज्ञों की जो समिति गठित की, उसकी रपट का संज्ञान ही नहीं लिया। वास्तव में ऐसे कई मामले हैं, जब यह प्रतीत हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए न्यायिक सक्रियता के नाम पर अपनी सीमा लांघी।

पिछले कुछ समय से तो संसद से किसी विधेयक के पारित होते और उसके कानून का रूप लेते ही उसके खिलाफ याचिकाएं दायर हो जाती हैं और उन पर तुरंत सुनवाई भी शुरू हो जाती है। वक्फ संशोधन कानून के साथ ऐसा ही हुआ। निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट को संसद की ओर से बनाए गए किसी भी कानून की संवैधानिकता जांचने का अधिकार है, लेकिन यह आदर्श स्थिति नहीं कि प्रत्येक कानून लागू होने के पहले ही सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंच जाए और उसकी तत्काल सुनवाई भी होने लगे।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष कई महत्वपूर्ण मामले वर्षों से लंबित हैं। इसी तरह उच्च न्यायालयों में भी लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। निचली अदालतों की स्थिति तो और भी खराब है। एक तथ्य यह भी है कि कोलेजियम सिस्टम में सुधार की कोई पहल नहीं हो रही है। इसके चलते उच्चतर न्यायपालिका के जज ही जजों की नियुक्ति कर रहे हैं। किसी अन्य बड़े लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं होता। यह व्यवस्था संविधानसम्मत भी नहीं है।