[संदीप घोष]। पिछले कुछ समय से शिक्षा पर काफी बहस हुई है। एक ओर बंगाल का शिक्षक भर्ती घोटाला सुर्खियों में रहा तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी का दावा है कि उसने प्राइमरी स्कूलों के माध्यम से शिक्षा में भारी सुधार किया है। अन्य सरकारी नौकरियों की तरह शिक्षकों की भर्ती में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं। कुछ साल पहले मध्य प्रदेश में व्यापम को लेकर भारी हंगामा हुआ था। एक समय बिहार और उत्तर प्रदेश बोर्ड परीक्षाओं में धड़ल्ले से नकल को लेकर खबरों में रहे। ये सभी बिंदु शिक्षा क्षेत्र में समस्याओं की ओर संकेत करते हैं। स्वतंत्रता के बाद से भारत में स्कूलों की संख्या में दस गुना बढ़ोतरी हुई।

1947 तक देश में करीब 1.5 लाख स्कूल थे, जिनकी संख्या 2021-22 में बढ़कर 15 लाख हो गई। गांवों में सड़कों और पुलों की बढ़ी संख्या से सुधरे बुनियादी ढांचे ने स्कूलों तक पहुंच बेहतर बनाई। मिड-डे मील जैसी योजनाओं ने भी ग्रामीण स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति बढ़ाने के मामले में सकारात्मक प्रभाव डाला। वैसे तो भारत में साक्षरता का स्तर अभी भी वैश्विक औसत से कम है, लेकिन 1951 में बमुश्किल 18 प्रतिशत साक्षरता दर का आंकड़ा जबरदस्त उछाल के साथ 74 प्रतिशत तक पहुंच गया। ये आंकड़े भी 2011 की जनगणना के हैं। साक्षरता दर बढ़ने के बावजूद शिक्षा के समग्र स्तर में मानकों के अनुरूप अपेक्षित प्रगति नहीं हुई है। इसके पीछे कई कारण जिम्मेदार रहे, जिनका जिक्र विभिन्न शोध पत्रों में भी हुआ है।

शिक्षा के समक्ष सबसे बड़ी समस्या सक्षम शिक्षकों की उपलब्धता से जुड़ी है। ग्रामीण भारत में कई स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक ही नहीं हैं और कई जगह तो एक भी अध्यापक नहीं है। यहां तक कि जहां शिक्षक उपलब्ध भी हैं, वहां उनकी क्षमताएं सवालों के घेरे में होती हैं। फिर उनकी प्रतिबद्धता, समर्पण और व्यापक स्तर पर अनुपस्थिति जैसे पहलू सामने आते हैं। अमूमन यह देखा गया है कि ग्रामीण स्कूलों में शिक्षक सरकार से वेतन तो लेते हैं, लेकिन साथ में किसी दूसरे काम-धंधे में भी लगे होते हैं। आमतौर पर कहा जाता है कि सरकार को केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर शिक्षा के लिए बजट बढ़ाने की आवश्यकता है। यह बात काफी हद तक सही है, लेकिन शिक्षा में निवेश पर प्रतिफल कम है, क्योंकि पूरे तंत्र में भारी रिसाव की स्थिति बनी हुई है। इसका ही परिणाम है कि हमारे शिक्षा तंत्र से प्राप्त उत्पाद की गुणवत्ता लचर बनी हुई है। तमाम बच्चे स्कूल की पढ़ाई के बाद ही शिक्षा से किनारा कर लेते हैं। इसी तरह आगे की पढ़ाई और स्नातक के बाद तमाम बेरोजगार रह जाते हैं। यहां तक कि उनमें से प्रतिभाशाली छात्र भी नौकरी पाने में नाकाम रहते हैं।

शहरों में सरकारी स्कूलों की खराब गुणवत्ता के चलते निजी स्कूल फलते-फूलते गए। आकर्षक नामों और ऊंची फीस वसूलने वाले इन स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता मानकों के स्तर पर नहीं। तब छात्रों को ट्यूशन का सहारा लेना पड़ता है। इंजीनियरिंग, प्रबंधन और चिकित्सा शिक्षा के प्रति अथाह आकर्षण ने आइआइटी, आइआइएम के लिए कोचिंग से लेकर मेडिकल कालेजों का पूरा उद्योग विकसित कर दिया है। चूंकि कुछ ही छात्र परीक्षा पास करके प्रवेश पाते हैं तो अधिकांश भारी-भरकम फीस अदा करके निजी कालेजों में दाखिला लेते हैं। आखिरकार उन्हें वह डिग्री मिल जाती है, जो एक प्रकार से दिखावटी ही होती है। उसके बाद वे अपनी डिग्री से निचले स्तर की नौकरियों के आवेदन करते हुए दिखाई पड़ते हैं।

कई बार अकुशल सरकारी नौकरियों के लिए लगने वाले जमघट से इसकी पुष्टि होती है। स्पष्ट है कि यह समस्या व्यापक और जटिल, दोनों प्रकार की है। इसका कोई आसान समाधान भी नहीं। इससे बहुआयामी एवं बहुस्तरीय दृष्टिकोण के जरिये निपटना होगा। यही कारण है कि बिहार के नए उपमुख्यमंत्री द्वारा एक साल के भीतर दस लाख सरकारी नौकरियां सृजित करने या दिल्ली के विवादित शिक्षा माडल जैसे त्वरित समाधान खोखले एवं अव्यावहारिक लगते हैं। दुर्भाग्यवश आम आदमी इसे नहीं समझता और वह उम्मीद पालने लगता है। वह तो नेताओं से सवाल भी नहीं कर सकता।

परिणामस्वरूप उससे किए गए वादे पूरे नहीं हो पाते और अगले चुनाव में उसे नए सपने दिखाए जाते हैं। ऐसे में कुछ वास्तविकताओं के आलोक में स्थिति का नए सिरे से आकलन करना आवश्यक हो जाता है। इसे नेताओं के भरोसे तो बिल्कुल नहीं छोड़ा जा सकता, जिनका एक ही मकसद होता है कि किसी भी कीमत पर अगला चुनाव जीता जाए। हमें मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। जनमत निर्माता, अकादमिक, उद्योग जगत के दिग्गज और एक्टिविस्ट सामाजिक नजरिया बदलने की दिशा में कुछ मिथकों को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

लोगों को सबसे पहले तो यह महसूस करना चाहिए कि काम की प्रकृति अपरिवर्तनीय ढंग से बदल रही है। जिंदगी भर की पक्की नौकरी अब अतीत की बात हो गई है। यहां तक कि सरकारी नौकरियों में भी यह चलन बदल रहा है। अब सार्वजनिक उपक्रम स्वयं को सक्षम एवं प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए कार्यबल में कटौती कर रहे हैं, अन्यथा या तो वे बंद हो जाएंगे या उनकी बिक्री कर दी जाएगी। सरकारी विभागों को भी गवर्नेंस की लागत घटाने के लिए आकार घटाना होगा। इसके अतिरिक्त डिजिटलीकरण, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, मशीन लर्निंग और स्वचालन आदि के उभार से कई सामान्य नौकरियां समाप्त हो जाएंगी।

चालक रहित कार और चालक रहित रेल जैसी संकल्पनाएं शीघ्र ही साकार हो जाएंगी। ऐसे में अगली पीढ़ी के लिए इसके क्या निहितार्थ हैं? कई परंपरागत नौकरियां घटेंगी तो कई नए क्षेत्रों और विशेषकर सेवा क्षेत्र में अवसर बढ़ेंगे। उनके लिए अलग किस्म के कौशल की आवश्यकता होगी। ऐसे में युवा पीढ़ी को अकादमिक डिग्रियों और सरकारी नौकरियों के पीछे पड़ने के बजाय इन नई किस्म की नौकरियों के लिए स्वयं को तैयार करना चाहिए। साथ ही उन्हें उद्यमिता के मंत्र का मर्म भी समझना चाहिए, ताकि अगली पीढ़ी प्रधानमंत्री के शब्दों को धरातल पर उतार सके कि नौकरी लेने नहीं, देने वाले बनिए। याद रहे कि आत्मनिर्भर होना जितना देश पर लागू होता है, उतना ही प्रत्येक व्यक्ति पर भी।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)