प्रो. निरंजन कुमार: ‘बहुत साल पहले हमने नियति के साथ वादा किया था और अब समय आ गया है जब हम अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करेंगे...एक क्षण आता है, जो इतिहास में बहुत ही दुर्लभ होता है, जब हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाते हैं, जब एक युग समाप्त होता है और जब लंबे समय से दबे हुए एक राष्ट्र के आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है।’ यह संदर्भ 14 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को दिए गए भाषण का एक अंश है, जो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिया था।

यह वक्तव्य हमारे स्वाधीनता संग्राम के दौरान उन सपनों की प्रतिध्वनि थी, जो स्वामी विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक, महर्षि अरविंद, रवींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, सरदार पटेल और डा. आंबेडकर जैसे मनीषियों ने देखा था। उन विभूतियों का सपना ऐसे स्वतंत्र भारत का था, जिसका तंत्र अर्थात संरचना, विचार, अस्तित्व-पहचान सदियों की गुलामी के पट्टे को फेंककर नया बनेगा, मगर जी-20 से संबंधित आयोजन में देश के नाम ‘भारत’ को ‘इंडिया के बरक्स रखकर जिस तरह से अनर्गल विवाद खड़ा किया जा रहा है और ‘भारत’ शब्द को जिस तरह हिकारत से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे हमारे स्वाधीनता सेनानियों का आत्मा कराह रही होगा। क्या हो हमारे देश का नाम? भारत या इंडिया? आखिर इंडिया के स्थान पर भारत को प्राथमिकता क्यों न मिले?

संविधान के अंग्रेजी संस्करण में स्पष्ट है कि इंडिया यानी भारत, राज्यों का संघ होगा। हिंदी प्रति में लिखा गया है, भारत अर्थात् इंडिया, राज्यों का संघ होगा। संविधान सभा में ‘भारत बनाम इंडिया’ पर जोरदार बहस चली थी। कई लोगों का कहना था कि ‘इंडिया’ शब्द में गुलामी की गंध है, लेकिन भारत के साथ-साथ इंडिया शब्द को भी अपना लिया गया। इसके पीछे शायद औपनिवेशिक शासन का अचेतन मनोवैज्ञानिक दबाव रहा हो।

जिस इंडिया शब्द के समर्थन में इतनी हायतौबा मच रही, वह ग्रीक भाषा से आया है। ईसा पूर्व पांचवीं सदी में ग्रीक लोगों ने सिंधु नदी के लिए ‘इंडस’ और इस क्षेत्र के लोगों को ‘इंडी’या ‘इंडोई’ कहा। यूनानी विद्वान हेरोडोटस ने ‘इंडी’ शब्द का इसी रूप में प्रयोग किया है। यही ‘इंडी’ शब्द दूसरी-तीसरी सदी में लैटिन भाषा में ‘इंडिया’ बना। अभी तक इस शब्द का अर्थ भौगोलिक क्षेत्र न होकर यहां के निवासी थे। नौवीं सदी में यह अंग्रेजी और अन्य यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित हुआ। धीरे-धीरे ‘इंडिया’ का प्रयोग भौगोलिक भूभाग के लिए भी होने लगा।

इतिहासकार इयान जे. बैरो अपने लेख ‘फ्राम हिंदुस्तान टू इंडिया नेमिंग चेंज इन चेंजिंग नेम्स’ में लिखते हैं कि 18वीं शताब्दी से अंग्रेजों ने ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग करना शुरू कर दिया था। ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग दरअसल भारत को मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक रूप से पराधीन बनाने का एक उपक्रम भी था। इस प्रकार अंग्रेजी औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी शासन की देन ‘इंडिया’ शब्द में ब्रिटिश गुलामी की गंध छिपी हुई है। ‘इंडिया’ शब्द में ‘कुलीनता’ का भाव भी झलकता है, जो इस देश की आम जनता, किसान, मजदूर और अन्य निम्न वर्ग को समाहित करता हुआ नहीं दिखता। समाज भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी इंडिया शब्द से इस देश की किसी सांस्कृतिक परंपरा, भावबोध या अर्थवत्ता का परिचय नहीं मिलता।

‘इंडिया’ के बरक्स ‘भारत’ अभिधान को देखें तो यह ज्यादा प्राचीन है। ‘भारत’ का मूल शब्द ‘भरत’ का उल्लेख कम से कम 3,500 वर्ष पहले ऋग्वेद में मिलता है। भौगोलिक भूभाग के रूप में ‘भारत’ या ‘भारतवर्ष’ ब्रह्मपुराण और विष्णुपुराण में मिल जाता है जिसे अधिकांश विद्वान ईसापूर्व छठी सदी का ग्रंथ मानते हैं। इसके अलावा वायु पुराण और महाभारत में इस क्षेत्र का नाम भारत या भारतवर्ष ही है। ‘भारत माता की जय’ स्वाधीनता आंदोलन का सर्वाधिक भावात्मक नारा तो था ही, हमारे ‘राष्ट्रगान’ में भी केवल ‘भारत’ शब्द ही है।

किसी देश के नामकरण की सार्थकता उसकी अर्थवत्ता में भी होती है। ‘भारत’ शब्द संस्कृत के ‘भ्र’ धातु से आया है, जिसका अर्थ है उत्पन्न करना, वहन करना, निर्वाह करना। तदनुसार भारत का शाब्दिक अर्थ हुआ-जो निर्वाह, उत्पन्न या वहन करता है। इस रूप में ‘भारत’ शब्द अत्यंत अर्थवान है। भारत का एक और अर्थ है-ज्ञान की खोज में संलग्न। अर्थात अपने सांस्कृतिक बोध, मूल्यवत्ता और अर्थवत्ता के धरातल पर भी ‘भारत’ नाम अधिक सार्थक है। इसके अलावा यह अभिधान सर्वसमावेशी भी है, अपने में सभी वर्ग, पंथ और समुदाय को समाहित करता है।

यह अनायास नहीं कि संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित अधिकांश भाषाओं-पूर्व की असमिया एवं मणिपुरी से लेकर पश्चिम की गुजराती और मराठी तथा दक्षिण की तमिल, तेलुगु, कन्नड़ या मलयालम में इस देश को भारत, भारोत, भारतनाडु, भारता, भारतदेशम, भारतम आदि कहा जाता है, जो ‘भारत’ शब्द के ही पर्याय हैं। सामाजिक हो या सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक हो या भाषा-विज्ञान, हर कसौटी पर ‘भारत’ नाम में ही इस देश का आत्मा विराजता है।

संसार का कोई भी स्वाभिमानी देश विदेशी गुलामी के चिह्न और नाम स्वीकार नहीं करता। सीलोन, गोल्ड कोस्ट और रोडेशिया जैसे देश विदेशी नाम को त्याग कर अपने पूर्वकालिक नाम श्रीलंका, घाना और जिंबाब्वे अपना चुके हैं तो महान प्राचीन सभ्यता-संस्कृति वाला हमारा देश ‘भारत’ क्यों नहीं अपना सकता? ध्यान रहे हमारा एक और पड़ोसी देश बर्मा भी म्यांमार हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पंच प्रण में गुलामी की मानसिकता को खत्म करना और भारत की विरासत पर गर्व करना भी है। नेहरू की प्रतिज्ञा को पूरा करने का आज सही समय है। ‘भारत’ हर दृष्टि से श्रेयस्कर नाम है। इसके विरोध का कोई औचित्य नहीं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में मूल्य संवर्धन पाठ्यक्रम समिति के अध्यक्ष हैं)