जागरण संपादकीय: अमेरिका के आगे असहाय यूक्रेन, ट्रंप और जेलेंस्की की मुलाकात से क्या निष्कर्ष निकला?
Trump Zelensky Meeting जहां यूरोपीय नेताओं को पुतिन पर भरोसा नहीं वहीं ट्रंप न केवल पुतिन के प्रति रवैया बदल रहे हैं बल्कि रूस को लेकर अपनी नीति नए सिरे से गढ़ने में लगे हैं। रूस भी अमेरिकी विदेश नीति को व्यावहारिक बताते हुए उसे अपने हितों के अनुरूप बता रहा है। स्वाभाविक है कि इससे यूरोप की चिंता बढ़ेंगी।
हर्ष वी. पंत। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की के बीच बीते दिनों हुई मुलाकात हाल के दौर की सबसे चर्चित मुलाकातों में से एक रही। टीवी कैमरों के सामने राष्ट्राध्यक्षों के बीच इस तल्ख बहस को पूरी दुनिया ने देखा। इसके अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा एवं विश्लेषण जारी है।
लोग कूटनीति से लेकर आतिथ्य और मेजबानी एवं सामान्य शिष्टाचार से लेकर नाना प्रकार की कसौटियों पर इस मुलाकात को कस रहे हैं। इसने भू-राजनीति और वैश्विक समीकरणों को भी एकाएक बदलने का काम किया।
अमेरिका के साथ खनन समझौते पर हस्ताक्षर और बदले में निरंतर मदद के आश्वासन से वाशिंगटन आए जेलेंस्की जहां अपमानित होकर खाली हाथ लौटे, वहीं यूरोपीय देशों को आनन-फानन अपनी बैठक बुलाकर यूक्रेन के समर्थन में आगे आना पड़ा। ट्रंप और जेलेंस्की की मुलाकात ने यूक्रेन युद्ध को लेकर अनिश्चितताएं बढ़ाने के साथ ही दुनिया में खेमेबाजी के आसार बढ़ा दिए हैं।
यह स्पष्ट है कि ओवल आफिस में ट्रंप-वेंस और जेलेंस्की के बीच जो कुछ हुआ, उसे कूटनीतिक कसौटियों पर शिष्टता नहीं कहा जा सकता। यह सही है कि सभी देश अपने-अपने हितों की पैरवी करते हैं, लेकिन उसकी एक मर्यादा होती है। भारतीय परंपरा में आतिथ्य के दृष्टिकोण से भी इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।
जेलेंस्की का रुख ट्रंप-वेंस को भले ही कुछ अड़ियल लगा हो, लेकिन वह अपनी प्रतिक्रिया में और संयमित हो सकते थे। अगर ऐसी तनातनी की स्थिति निर्मित हुई तो उसके पीछे अविश्वास की भावना हो सकती है। यह किसी से छिपा नहीं कि ट्रंप जबसे राष्ट्रपति बने हैं, तबसे रूस को लेकर उनका रवैया बहुत नरम रहा है।
बीते दिनों सऊदी अरब में रूसी अधिकारियों के साथ अमेरिकी प्रतिनिधियों की बैठक भी बहुत सौम्य परिवेश में संपन्न हुई, जिसमें दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के प्रति परस्पर सम्मान का परिचय दिया। इतना ही नहीं, बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका ने रूस के समर्थन में मतदान तक किया, जबकि उस मामले में भारत और चीन जैसे रूस के सहयोगी माने जाने वाले देशों ने अनुपस्थित रहना उचित समझा।
ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में भी यूक्रेन युद्ध को जल्द समाप्त करने को एक प्रमुख मुद्दा बनाया था और सत्ता संभालने के बाद से ही वह ऐसे प्रयासों में जुटे हुए हैं। स्वाभाविक है कि जेलेंस्की उनकी इस अधीरता को समझते हुए दबाव महसूस कर रहे हों और दोनों पक्षों के बीच बात बनने के बजाय बिगड़ गई तो यह हाल के दौर में उपजे अविश्वास का ही परिणाम रहा।
इस घटनाक्रम से यह भी संकेत मिलता है कि ट्रंप यूक्रेन के साथ बहुत करीबी एवं आत्मीय रिश्ते नहीं रखना चाहते। उनकी यह मंशा भी दिखाई पड़ती है कि वह मदद के बदले यूक्रेन को दबाव में लेकर उस पर अपने फैसले थोपना चाहते हैं। यूक्रेन पर खनन से लेकर जल्द से जल्द युद्धविराम की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए दबाव को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है।
चूंकि अमेरिकी मदद के बिना यूक्रेन के लिए रूस का प्रतिरोध करना मुश्किल है, इसीलिए ट्रंप को यही उम्मीद होगी कि देर-सबेर जेलेंस्की उनके दबाव के आगे टूट जाएंगे। ट्रंप के रवैये ने जेलेंस्की और यूरोप पर दबाव बढ़ा दिया है। यही कारण है कि यूरोपीय देशों के दिग्गजों को आनन-फानन लंदन में एक बैठक बुलाकर यूक्रेन के प्रति एकजुटता दिखानी पड़ी।
इस बैठक में बड़े-बड़े वादे और दावे किए गए कि यूरोपीय देश यूक्रेन की सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्ध हैं, लेकिन यह भी सच है कि कीव को सहारा देने के मामले में यूरोपीय देशों के पास न तो पर्याप्त क्षमताएं हैं और न ही संसाधन। ऐसे में अमेरिकी सहायता अपरिहार्य होगी। यह बात यूरोपीय नेता भी भलीभांति समझते हैं।
जेलेंस्की के वाशिंगटन दौरे से पहले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति अमेरिका गए थे। इसके प्रबल आसार हैं कि उस दौरान दोनों नेताओं ने ट्रंप को यूक्रेन के मुद्दे पर समर्थन के लिए मनाने के भी पूरे प्रयास किए होंगे। यहां तक कि यूक्रेन को लेकर ट्रंप की एक टिप्पणी को बीच में ही काटते हुए फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों ने उस मामले से संबंधित तथ्य सामने रखने का प्रयास भी किया था।
अमेरिकी मदद की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि नाटो महासचिव ने भी जेलेंस्की को यही सुझाव दिया कि वह अमेरिका को कुपित न करें और सहयोग के लिए हरसंभव प्रयास करें। ट्रंप जल्द से जल्द यूक्रेन युद्ध समाप्त कराना चाहते हैं और उनकी अधीरता इसी से समझी जा सकती है कि वह बैठक के दौरान जेलेंस्की की आपत्तियों के प्रति बहुत गंभीर नहीं थे।
जब बात बिगड़ी तो उन्होंने एकतरफा एलान कर दिया कि वह (जेलेंस्की) अभी शांति के मूड में नहीं और जब वह शांति की बात करना चाहें तो हमारे दरवाजे उनके लिए खुले हुए हैं। अभी तो यही आसार दिख रहे हैं कि ट्रंप यूक्रेन को उसके हाल पर छोड़ने से गुरेज नहीं करेंगे। इससे यूरोप के समक्ष ऊहापोह की स्थिति बढ़ेगी। इसकी तपिश भी महसूस होने लगी है।
यूरोपीय आयोग की प्रमुख उर्सुला वान डेर लेयेन ने दोहराया कि यूक्रेन की मदद के लिए सभी उपाय किए जाएंगे और यूरोप इसे लेकर ज्यादा जिम्मेदारी उठाने को तैयार है। ब्रिटेन ने भी 2.6 अरब पाउंड की सहायता का एलान किया है। हालांकि ऐसी सहायता को जमीन पर उतरने में समय लगेगा।
इससे यूक्रेन को तात्कालिक मदद नहीं मिल पाएगी, जिसकी उसे अभी बहुत जरूरत है, क्योंकि रूस अपना शिकंजा लगातार कसता जा रहा है। ट्रंप के रुख-रवैये से उसे और ताकत मिली है। यूरोप और अमेरिका के बीच बढ़ रहे मतभेद भी पुतिन का हौसला बढ़ाएंगे।
जहां यूरोपीय नेताओं को पुतिन पर भरोसा नहीं, वहीं ट्रंप न केवल पुतिन के प्रति रवैया बदल रहे हैं, बल्कि रूस को लेकर अपनी नीति नए सिरे से गढ़ने में लगे हैं। रूस भी अमेरिकी विदेश नीति को व्यावहारिक बताते हुए उसे अपने हितों के अनुरूप बता रहा है। स्वाभाविक है कि इससे यूरोप की चिंता बढ़ेंगी। यह बदलता परिदृश्य यूक्रेन युद्ध पर विराम को लेकर अनिश्चितताएं बढ़ाने का ही काम करेगा।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में उपाध्यक्ष हैं)
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