संदीप घोष। लोकसभा चुनाव के दो चरण संपन्न हो चुके हैं। इन्हें लेकर अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें कोई सच्चाई है। अभी तक 191 सीटों के लिए मतदान हो चुका है। इन सीटों के लिए किसी रुझान के बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन निर्वाचन क्षेत्रों की प्रकृति एक जैसी नहीं। इन 191 में से करीब 40 प्रतिशत सीटें दक्षिण भारत की हैं।

दक्षिण में मतदान का रुझान उत्तर से काफी अलग रहता है। इसलिए कोई भी सामान्यीकरण उचित नहीं। पिछले चुनाव में इनमें आधी सीटें भाजपा ने जीती थीं, लिहाजा इनके नतीजों में 10-20 प्रतिशत का विचलन अंतिम परिणाम को शायद निर्णायक रूप से प्रभावित नहीं करेगा। दो चरणों के आधार पर हार-जीत का माहौल जल्दबाजी कहा जाएगा। अभी जो हो रहा है, वह केवल मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने का खेल है।

एक समय इंटरनेट मीडिया पर पिछड़ी रहने वाली कांग्रेस अपने संचार प्रमुख जयराम रमेश के नेतृत्व में अब खासी मुखर है। 2004 में कांग्रेस को मिली जीत में जयराम के प्रभावी संचार को श्रेय दिया गया था। अब वह फिर से सक्रिय हैं। इसका असर भी दिख रहा है, क्योंकि पार्टी भाजपा और प्रधानमंत्री के खिलाफ पूरी तरह आक्रामक तेवर अपनाए हुए है। मोदी के प्रति टिप्पणियां कुछ हद तक अपमानजनक भी हैं।

यह हैरान करता है, क्योंकि 2019 में मिली हार पर कांग्रेस की समीक्षा में यह सामने आया था कि मोदी पर निजी हमले भी पार्टी की पराजय का एक प्रमुख कारण रहे। पार्टी अपनी उसी असफल रणनीति को दोहरा रही है। इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यही कि कांग्रेस के आकलन में मोदी की छवि अब अपराजेय नेता की नहीं रही। दूसरे, कांग्रेस की नजर में भारत जोड़ो यात्रा के दो चरणों के साथ राहुल गांधी का कद इतना बढ़ गया कि वह उन्हें प्रधानमंत्री पद के गंभीर दावेदार के रूप में देख रही हो।

कांग्रेस की प्रचार मशीनरी राहुल को ‘पीएम इन वेटिंग’ के रूप में पेश कर रही है। एक हालिया वीडियो में राहुल शपथ ग्रहण के लिए जाते दिखाए जा रहे तो एक अन्य में उन्हें लाल किले से राष्ट्र के नाम संबोधन की तैयारी करते हुए भी दिखाया गया है। आखिर आइएनडीआइए के घटक इसे किस रूप में लेंगे? वे यह तो पसंद नहीं करेंगे कि उनके नेतृत्व को हल्के में लिया जा रहा है। यह सब मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाकर मतदाता के मन को प्रभावित करने के लिए की जा रही कवायद है।

चुनावी रणनीति में इस प्रकार का दांव तभी कारगर होता है, जब अनमने मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग हो, जो संभावित विजेता के पक्ष में लामबंद होना पसंद करते हैं। अगर यह संकेत जाए कि कोई पक्ष हारने की कगार पर है तो यह वर्ग अपना पाला बदल लेता है। कांग्रेस इसी दांव के भरोसे लगती है। इसीलिए, उसने भाजपा के लिए नारा गढ़ा है, ‘दक्षिण में साफ, उत्तर में हाफ!’

मोदी मंजे हुए नेता हैं और ऐसा नहीं है कि वह इस खेल से अनभिज्ञ हों। वह खुद पर निजी हमले को ही अपना हथियार बना लेते हैं। इससे उन्हें कांग्रेस और राहुल पर सीधा हमला करने का मौका मिलता है। कांग्रेस के घोषणा पत्र पर मोदी के निशाने से यह स्पष्ट भी हुआ। मोदी ने इसमें धन-संपदा के पुनर्वितरण और इस बारे में राहुल गांधी के बयान को मजहबी कोण से जोड़ दिया। यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी और भाजपा की ओर से यह जवाबी हमला है। कहा जा रहा है कि ‘अबकी पार चार सौ पार’ का मोदी का नारा अति-आत्मविश्वास पर आधारित है और उन्होंने यह समझा कि चुनाव एकदम आसान हैं।

ऐसा मानने वाले नहीं जानते कि मोदी और अमित शाह तीसरे कार्यकाल की चुनौतियों से भलीभांति अवगत हैं और इसी कारण उन्होंने योजना बनाकर पहले ही अपनी तैयारी शुरू कर दी थी। इसके लिए उन्होंने क्षेत्रीय दलों के साथ गलबहियां शुरू कीं। मोदी और शाह को दक्षिण में भाजपा की संभावनाओं को लेकर कोई मुगालता नहीं था, जहां उसके मत प्रतिशत में वृद्धि सीटों की संख्या में रूपांतरित नहीं होती। इसलिए भाजपा को न केवल साझेदार चाहिए थे, बल्कि दूसरों को आइएनडीआइए का रुख करने से भी रोकना था।

उत्तर भारत में भी रणनीति बदली गई। मोदी-शाह को पता था कि पार्टी का पिछले चुनाव में प्रदर्शन चरम पर पहुंच गया था और ऐसे में कुछ सत्ता-विरोधी रुझान स्वाभाविक है। इसलिए अपने पारंपरिक वोट बैंक को साधे रखने की आवश्यकता थी। इस कड़ी में राम मंदिर के इर्दगिर्द बने माहौल का लाभ उठाने के लिए हिंदुत्व की राह अपरिहार्य थी। कांग्रेस जाति जनगणना, आरक्षण और संपदा के सर्वे का राग छेड़कर जाने-अनजाने भाजपा की पिच पर उतर आई। रही-सही कसर राहुल के मार्गदर्शक सैम पित्रोदा ने ऐसी कमजोर गेंद डालकर पूरी कर दी, जिसे मोदी ने स्टेडियम के बाहर भेज दिया।

इसके बावजूद यही कहना उचित होगा कि कोई भी रणनीति अचूक नहीं और कोई भी मुकाबला अंतिम गेंद फेंके जाने तक अनिर्णित रहता है। अंतर्विरोधों से ग्रस्त कांग्रेस नेतृत्व वाले आइएनडीआइए के बजाय भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती उसके भीतर से है। भले ही मोदी ने कई मौजूदा सांसदों के टिकट काटे हों, लेकिन जिन्हें चुनावी रण में उतारा गया, उन सभी का रिकार्ड बेदाग नहीं।

तमाम अहंकार और अनावश्यक आक्रामकता के शिकार हैं और केवल मोदी नाम के सहारे नैया पार लगाने की उम्मीद लगाए हैं। टिकट वितरण में कुछ गलतियां भी हुई हैं और खेमेबाजी की कुछ न कुछ आशंका हमेशा रहती है। इसकी कीमत भाजपा को अपने पारंपरिक गढ़ों में कुछ सीटें गंवाने के रूप में अदा करनी पड़ सकती है।

हालांकि भाजपा को कमजोर बताकर कांग्रेस जो माहौल बनाने का प्रयास कर रही है, वह भाजपा के लिए एक प्रकार का अहसान साबित हो सकता है। वह विकट गर्मी के बावजूद अपने मतदाताओं को बूथ तक लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिए यह बहुत जरूरी होगा, जो निर्विवाद रूप से पीएम पद के लिए सबसे लोकप्रिय पसंद बने हुए हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)