विवेक देवराय और आदित्य सिन्हा। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुसार चीन को पीछे छोड़कर भारत विश्व में सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गया है। इसके साथ ही भारत एक अनूठी जनसांख्यिकीय लाभांश की स्थिति में आ गया है। देश की करीब 65 प्रतिशत आबादी कामकाज योग्य है जो केवल भारत ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व के लिए विपुल आर्थिक एवं सामाजिक संभावनाओं के द्वार खोलती है। इन संभावनाओं को प्रभावी रूप से भुनाने के लिए भारत को मानव पूंजी में रणनीतिक निवेश करना होगा। उसे सुनिश्चित करना होगा कि इस राह में कोई कसर शेष न रह जाए।

जनसांख्यिकीय लाभांश जनसंख्या की आयु के स्तर में परिवर्तन पर झलकता है। जब 15 से 64 वर्ष के आयुवर्ग वाले लोगों की संख्या 14 वर्ष से कम और 65 वर्ष से अधिक की आयु वाले लोगों की संख्या से अधिक हो जाए तो इस प्रकार के लाभांश की स्थिति बनती है, क्योंकि इससे आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी के लिए बड़ी संख्या में लोग उपलब्ध होते हैं। इतिहास साक्षी है कि जिन देशों ने भी ऐसी स्थिति को भुनाने के लिए समय से उपाय किए तो उन्होंने प्रगति के नए मापदंड स्थापित किए।

इस लाभांश के पहले चरण में कामकाजी आबादी में भारी बढ़ोतरी से रोजगार, बचत एवं आर्थिक विकास और पारिवारिक कल्याण में निवेश बढ़ता है। परिणामस्वरूप इससे प्रति व्यक्ति जीडीपी में वृद्धि की राह खुलती है। हालांकि ऐसे लाभांश की स्थिति अमूमन पांच दशकों तक ही चलती है, जिसके बाद उसका दूसरा चरण आरंभ होता है। दूसरे चरण में वृद्ध होती आबादी के लिए सेवानिवृत्ति की तैयारी में संसाधन जोड़ने होते हैं, जिसमें पुन: निवेश के माध्यम से राष्ट्रीय आय में बढ़ोतरी का रुख नजर आता है। चूंकि जनसांख्यिकीय लाभांश के ये दोनों चरण स्वत: स्फूर्त रूप से आकार नहीं लेते तो उन्हें साकार करने के लिए प्रभावी नीतिगत कदम अपरिहार्य होते हैं।

इस समय भारत की आधी आबादी 25 वर्ष से कम आयु की है और जल्द ही कामकाजी आबादी एक अरब का आंकड़ा पार कर सकती है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक पत्र के अनुसार जनसंख्या के मोर्चे पर लाभ की यह स्थिति भारत की जीडीपी को हर साल दो प्रतिशत तक बढ़ाने की क्षमता रखती है। हालांकि इससे जुड़े अवसरों को भुनाने की राह में तमाम चुनौतियां विद्यमान हैं, जिन्हें दूर करना ही होगा।

सबसे पहली चुनौती तो उद्योग जगत की अपेक्षाओं और शिक्षण संस्थानों द्वारा प्रदान किए जाने वाले कौशल के स्तर पर भारी विसंगति की है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि रोजगार के लिए आवश्यक कौशल और उसकी पूर्ति में शिक्षण संस्थानों की अक्षमता के बीच 2030 तक 2.9 करोड़ का अंतराल उत्पन्न हो सकता है। विभिन्न सरकारी योजनाओं के माध्यम से इस स्थिति को सुधारने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन यह नाकाफी लगते हैं। कारण यही है कि सभी स्कूल इस प्रकार का प्रशिक्षण नहीं दे रहे और शिक्षा की गुणवत्ता में भी भिन्नता दिखती है।

रोजगार का विषय भी कई बिंदुओं से जुड़ा हुआ है। यह भी देखने में आता है कि उच्च शिक्षित लोगों की अपने करियर को लेकर विशेष आकांक्षाएं होती हैं और वे उन नौकरियों के लिए प्रयास नहीं करते, जिसमें वे अपने कौशल का सदुपयोग होता न देखते हों। इससे रोजगार प्रतीक्षा की अवधि लंबी खिंच जाती है। उदाहरण के रूप में नेशनल करियर सर्विस पर वित्त वर्ष 2024 के दौरान जहां नौकरियों की संख्या में 214 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, लेकिन नौकरी के लिए पंजीकरण कराने वालों का आंकड़ा केवल 53 प्रतिशत बढ़ा।

यह रोजगार बाजार से जुड़ी विसंगतियों एवं जागरूकता के अभाव को दर्शाता है। इस मोर्चे पर मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन कायम है। यह स्थिति तकनीकी एवं वैश्विक आर्थिक ढांचे में आ रहे तेज परिवर्तनों से और प्रभावित हो रही है, जो कुछ पारंपरिक कौशलों को अप्रासंगिक बनाने पर तुली है। ऐसे में, उच्च शिक्षा कई बार ऐसे हालात बना देती है, जहां उपलब्ध रोजगारों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए कामकाजी आबादी के पास आवश्यक अर्हता के स्तर पर असंगति देखने को मिलती है।

इंडिया स्किल्स रिपोर्ट, 2023 कुछ सुधार के संकेत करती है, जिसमें रोजगार की स्थिति 50.3 प्रतिशत बढ़ी हुई दिखती है। इसके बावजूद आधुनिक अर्थव्यवस्था की मांग की पूर्ति के लिहाज से यह पर्याप्त नहीं। भारत के लिए फिनलैंड के अनुभव से सीखना कुछ उपयोगी हो सकता है, जहां शिक्षण संस्थानों, सरकार और निजी क्षेत्र के बीच इस प्रकार से तालमेल बना होता है, जहां श्रम बाजार की मौजूदा एवं भविष्य की मांग को ध्यान में रखकर शिक्षण-प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त फिनलैंड में जीवनपर्यंत सीखने पर जोर दिया जाता है जो भारत के लिए और भी अहम रणनीति हो सकती है ताकि वह समय के साथ अपनी कामकाजी आबादी को सही दिशा में उन्मुख करता रह सके।

भारतीय अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से का असंगठित रूप में होना भी एक बड़ी चुनौती है। असंगठित क्षेत्र में एक बड़ी भागीदारी गैर-कृषि कामगारों की है, जिनके पास सीमित रोजगार संभावनाएं एवं सामाजिक सुरक्षा के अवसर उपलब्ध होते हैं। इससे भी जनसांख्यिकीय लाभांश की संभावनाओं पर ग्रहण लग सकता है। सतत आर्थिक लाभ के लिए इन कामगारों एवं उनके उद्यमों को उचित नीतियों के माध्यम से संगठित स्वरूप देना होगा। अतीत में बाल शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश की अनदेखी की स्थिति को अब सुधारा जा रहा है।

इस दिशा में की जा रही नई पहल का उद्देश्य जन्म के समय से स्कूल पहुंचने तक बच्चों की सेहत और व्यापक क्षमताओं को सुधारने पर केंद्रित है। पोषण अभियान और मिशन पोषण 2.0 जैसे कार्यक्रमों का लक्ष्य आरंभिक जीवन के पड़ाव पर कुपोषण को दूर करना है, जो भावी आर्थिक गतिविधियों और समग्र बेहतरी के लिए अच्छी बुनियाद रखने का काम करेगा।

इसलिए यदि भारत जनसांख्यिकीय लाभांश की संभावनाओं को पूरी तरह भुनाना चाहता है तो उसे समग्रता से भरी ऐसी रणनीति बनानी होगी, जिसमें शिक्षा सुधार, असंगठित क्षेत्र को संगठित स्वरूप देना और स्वास्थ्य एवं पोषण समृद्धि से जुड़े कार्यक्रमों का भलीभांति समावेश हो। इस दृष्टिकोण से अपेक्षित कौशल की कमी की पूर्ति के साथ ही सतत आर्थिक वृद्धि एवं जीवनस्तर में व्यापक सुधार के द्वार खुलेंगे।

(देवराय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख और सिन्हा परिषद में ओएसडी-अनुसंधान हैं)