[संजय गुप्त]। संसद का मानसून सत्र शुरू होने के पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल सदन को सही ढंग से नहीं चलने देंगे। ऐसा ही होता हुआ दिख रहा है। इस सत्र के पहले सप्ताह कोई विशेष कामकाज नहीं हो सका। विपक्ष सेना में भर्ती की अग्निपथ योजना, महंगाई, जीएसटी आदि को लेकर हंगामा कर रहा है। विपक्ष संसद के भीतर और साथ ही बाहर भी हंगामा कर रहा है।

संसद के बाहर हंगामा करने में कांग्रेस कुछ ज्यादा ही सक्रिय है। उसने नेशनल हेराल्ड मामले में प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की ओर से सोनिया गांधी से पूछताछ करने पर संसद के भीतर तो विरोध जताया ही, दिल्ली के साथ देश के अन्य हिस्सों में सड़कों पर उतरकर भी विरोध प्रकट किया। उसने ऐसा ही काम तब किया था, जब ईडी ने राहुल गांधी से पूछताछ की थी। कांग्रेस ईडी की पूछताछ का विरोध करके यही कहना चाह रही है कि गांधी परिवार कानून से ऊपर है। यह एक किस्म की सामंती मानसिकता ही है।

आखिर जब देश के अन्य नेताओं से इस तरह की पूछताछ हो सकती है तो राहुल और सोनिया गांधी से क्यों नहीं हो सकती? फिलहाल यह कहना कठिन है कि अगले सप्ताह संसद की कार्यवाही सही तरह चलेगी या नहीं, लेकिन कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल जिन मुद्दों पर चर्चा करने पर जोर दे रहे हैं, वे सब ऐसे मसले हैं, जिन पर संसद के बाहर संवाददाता सम्मेलनों, टीवी चैनल की चर्चाओं और इंटरनेट मीडिया के जरिये बहुत कुछ कहा जा चुका है।

विपक्ष ने पहले नए संसद भवन में स्थापित अशोक स्तंभ में बने शेरों की मुख मुद्रा पर हास्यास्पद आपत्ति उठाई, फिर संसद में असंसदीय करार दिए जा सकने वाले शब्दों की सूची पर यह कहकर हंगामा खड़ा किया कि सरकार विपक्ष की आवाज दबाना चाहती है, जबकि इस तरह के शब्दों की सूची दशकों से जारी की जा रही है।

विपक्ष ने संसद परिसर में धरना-प्रदर्शन पर रोक के निर्देश पर भी शोर मचाया, जबकि इस तरह का निर्देश संप्रग शासन में भी जारी हुआ था। इससे यही पता चलता है कि विपक्ष विरोध के लिए विरोध की राजनीति कर रहा है। इस क्रम में वह लोगों को गुमराह करने के साथ भड़का भी रहा है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि अग्निपथ योजना के विरोध में युवाओं को भड़काने में जहां कुछ कोचिंग संस्थानों ने भूमिका निभाई, वहीं राजनीतिक दलों ने भी।

इस योजना के तहत मिले साढ़े सात लाख आवेदन यही बताते हैं कि हमारे युवा सेना में अपनी सेवाएं देने के लिए तत्पर हैं। चूंकि सरकार ने यह आश्वासन दिया है कि समय के साथ इस योजना में बदलाव होते रहेंगे, इसलिए युवा तो संतुष्ट हो गए हैं, लेकिन विपक्ष संतुष्ट होने का नाम नहीं ले रहा है। वह यह समझने को तैयार नहीं कि जब दुनिया भर में सेनाओं का रूप-स्वरूप बदल रहा है, तब भारत को भी अपनी सैन्य भर्ती योजना में बदलाव करना आवश्यक है।

कांग्रेस और विपक्षी दल संसद में अन्य विषयों के साथ महंगाई पर चर्चा करने पर खासा जोर दे रहे हैं। इस पर चर्चा होनी ही चाहिए, लेकिन ऐसा लगता है कि विपक्ष का उद्देश्य हंगामा करना अधिक है। वह यह आरोप लगा रहा है कि मोदी सरकार ने कई नए उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाकर महंगाई बढ़ा दी। यह आरोप तब लगाया जा रहा है, जब जीएसटी परिषद में सारे फैसले आम सहमति से लिए जाते हैं। इस परिषद में राज्य सरकारें भी शामिल होती हैं। इस यथार्थ से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल भी अवगत हैं कि कोविड महामारी और फिर यूक्रेन युद्ध के चलते सारी दुनिया में महंगाई बढ़ी है, लेकिन वे ऐसा प्रकट कर रहे हैं कि केवल भारत में ही महंगाई बढ़ रही है।

जब अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत की अर्थव्यवस्था भी दबाव में है, तब फिर उसे संभालने के लिए सरकार टैक्स बढ़ाकर राजस्व जुटाने के उपाय न करे तो क्या करे? यह ठीक है कि इन उपायों से जनता को परेशानी होगी, लेकिन विपक्ष यह तो बताए कि किया क्या जाना चाहिए? यदि विपक्ष यह चाह रहा है कि सरकार समाजवादी सोच के तहत जनता को टैक्स से राहत देने का काम करे तो इससे अर्थव्यवस्था का संकट और बढ़ेगा ही। लगता है विपक्ष यह देखने को तैयार नहीं कि पड़ोसी देश श्रीलंका किस तरह आर्थिक नियमों की अनदेखी के कारण तबाह हो गया।

यदि विपक्ष संसद में सार्थक चर्चा करने से इन्कार करता रहता है तो वह अपनी विश्वसनीयता कम करने का ही काम करेगा। कठिनाई यह है कि वह तथ्यों और तर्कों के साथ अपनी बात कहने के लिए तैयार नहीं है। इसी कारण वह न तो किसी मुद्दे पर सरकार पर दबाव बना पा रहा है और न ही जनता को अपनी ओर आकर्षित कर पा रहा है। उसकी ओर से संसद के भीतर वही सब बातें नए सिरे से दोहराने का कोई औचित्य नहीं, जो संसद के बाहर कई बार कही जा चुकी हैं।

राहुल गांधी एक लंबे अर्से से अपनी राजनीति ट्विटर के माध्यम से करने में लगे हुए हैं। कई बार उनके ट्वीट तथ्यों के विपरीत भी होते हैं और अशोभनीय भी। कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी को यह समझना होगा कि जनता को गुमराह करने और उकसाने की रणनीति से उसे कोई लाभ नहीं मिलने वाला। राहुल गांधी इस रणनीति पर तभी से चल रहे हैं, जबसे कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बाहर हुई।

2014 के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव हारने के उपरांत राहुल गांधी ने सबक सीखने की बात तो की, लेकिन ऐसा किया नहीं। इसी का परिणाम है कांग्रेस लगातार कमजोर होती जा रही है। वह एक के बाद एक राज्यों में हार रही है। पंजाब गंवाने के बाद अब उसके पास केवल राजस्थान और छत्तीसगढ़ ही बचे हैं। चूंकि उसकी स्थिति एक क्षेत्रीय दल सरीखी हो गई है, इसलिए ऐसे दल भी उसे महत्व नहीं दे रहे हैं।

राहुल गांधी न केवल कांग्रेस, बल्कि अन्य विपक्षी दलों को भी नकारात्मक राजनीति के लिए उकसा रहे हैं। राहुल गांधी न सही, अन्य विपक्षी दलों के नेताओं को यह समझना चाहिए कि उनका नकारात्मक रवैया उन्हें कांग्रेस की तरह से राजनीतिक रूप से कमजोर करने का काम करेगा। उन्हें यह भी समझना होगा कि देश में जो भी समस्याएं हैं, उनके समाधान के उपाय बताने के बजाय सड़क पर धरना-प्रदर्शन करना अथवा संसद में हंगामा मचाना समय और संसाधन की बर्बादी ही है। विपक्ष को इसका आभास होना चाहिए कि इससे आम जनता को कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]