प्रत्येक प्राणी सुख की प्राप्ति के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहता है। बुद्धि एवं विवेकशील होने के कारण प्राणियों में मनुष्य अधिक ही भाग-दौड़ करता है। मनुष्य आनंद पाने के लिए अनेकानेक पदार्थ संग्रह करता है तथा धन संग्रह में जुटा रहता है। पर क्या वह आनंद का एक अंश भी प्राप्त कर पाता है? सत्य तो यह है संपदा तथा धन इकट्ठा करके अपनी इच्छानुसार उसका उपभोगकर तन तथा इंद्रियों का क्षणिक सुख तो अनुभव कर सकता है, किंतु मानसिक अथवा आत्मिक सुख तो तभी प्राप्त होगा जब शांति एवं संतोष मिले। इसी को आनंद कहते हैं। तन तो स्थूल है। उसको शारीरिक आराम चाहिए, इंद्रियों को इंद्रिय सुख चाहिए पर मन एवं आत्मा सूक्ष्म हैं। उन्हें आंतरिक सुख चाहिए। जिसमें कोई विघ्न न हो शांति हो, संतोष हो। यही शांति, संतोष वाला सुख ही तो आनंद है। मनुष्य भ्रमवश भौतिक सुख को ही आनंद समझ बैठता है। तन को भौतिक सुख समझकर स्वर्ग मान बैठता है। परंतु मन एवं आत्मा विचलित रहती हैं। अपने को असहाय समझकर दुख का अनुभव करती है। तो फिर काहे का आनंद। तन-मन आत्मा सभी सुखी हों, वही तो वास्तविक आनंद है। किसी भी पदार्थ की उपलब्धि मानव जीवन की आवश्यकता तो है पर लक्ष्य नहीं है। जीवन का लक्ष्य तो प्रभु तक पहुंचना ही है। सत्य तो यह है कि आनंद और भगवान एक दूसरे के पर्याय हैं। साधन भोगते हुए प्रभु को भी स्मरण करते रहें तो आनंद का आभास होने लगेगा तथा दुनिया के सभी कार्य आसान प्रतीत होने लगते हैं। इच्छाशक्ति बढ़ती है, मनोबल बढ़ता है और कार्य भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाता है। प्रभु का चिंतन, सुमिरन, स्मरण कार्य के साथ-साथ रहना मनुष्य की साधना में बहुत बल प्रदान करता है। यदि मनुष्य को दुख है तो उसका कारण अज्ञान है। दुख निवृत्ति का साधन प्रभु सुमिरन के साथ ज्ञान का होना है। सांसारिक कर्म करते हुए प्रभु का स्मरण ही मनुष्य के कर्म को पूजा बना देगा और उसे सच्चा एवं शाश्वत आनंद प्राप्त हो जाएगा।

[मृदुल कुमार पांडेय]

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