राज कुमार सिंह। पता नहीं सत्ता-स्वार्थ केंद्रित वर्तमान राजनीति में पूर्व उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू की आवाज सुनी जाएगी या नहीं। हाल में उन्होंने दो बड़ी राजनीतिक विकृतियों की ओर ध्यान दिलाया। पहली, दलबदल और दूसरी, रेवड़ियों की राजनीति। यहां दलबदल की पड़ताल करते हैं। लोकतंत्र में अपेक्षा की जाती है कि नीति, सिद्धांत और कार्यक्रम यानी विचारधारा के आधार पर दल बनें और उसी आधार पर लोग उनसे जुड़ें भी, मगर क्या ऐसा हो रहा है?

जैसा कि नायडू ने कहा कि लोग अक्सर दल बदलते हैं, सुबह एक दल में होते हैं तो शाम को दूसरे दल में। वे अपने नेता की आलोचना करते हैं, उनमें से कुछ टिकट के इच्छुक होते हैं। नायडू की टिप्पणी अतिरंजित लग सकती है, किंतु ऐसे उदाहरण तो हैं। हरियाणा के दशकों पुराने आयाराम-गयाराम प्रकरण के बाद भी ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे। नायडू असल में उस पीढ़ी के नेता हैं, जिसमें राजनीतिक मर्यादा के दर्शन होते थे।

इसीलिए वह दलबदल कानून की मजबूती की सलाह देकर अपेक्षा करते हैं कि दलबदल करने वालों को सांसद-विधायक पद भी त्याग देने चाहिए। दलबदल भले सांसद-विधायक या अन्य नेता करते हों, मगर वह पार्टी आलाकमान की सहमति एवं सहयोग के बिना नहीं होता। तब आप दलबदल कानून को मजबूत बनाने की उम्मीद और पद त्याग जैसी नैतिकता की अपेक्षा किससे कर रहे हैं? दलबदल को प्रोत्साहन देने वालों से या विधायी सदनों में पहुंचने वाले दलबदलुओं से?

दलबदल की बीमारी नई नहीं है, लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह नासूर बन गई है। चुनाव से पहले तो यह खेल इतने बड़े स्तर पर खेला जाता है कि आम नागरिक के लिए हिसाब रख पाना भी मुश्किल हो जाए कि कौन-कौन कहां से कहां चला गया। राजस्थान की चूरू सीट से निवर्तमान सांसद राहुल कस्वां इसलिए कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, क्योंकि भाजपा ने इस बार उनके बजाय पैरालंपियन देवेंद्र झांझड़िया को टिकट दे दिया। ऐसी और भी तमाम मिसालें हैं। किसी को टिकट देने या किसी का टिकट काटने के कारण सार्वजनिक रूप से बताने की स्वस्थ परंपरा देश में नहीं है।

जब दलों में आंतरिक लोकतंत्र ही संदेह के घेरे में हो, तब ऐसी आदर्श परंपराओं की अपेक्षा भी तर्कसम्मत नहीं लगती, लेकिन टिकट न मिलने पर धुर वैचारिक विरोधी दल से चुनाव लड़ना राजनीतिक महत्वाकांक्षा और अवसरवादिता के अलावा क्या कहा जा सकता है? विडंबना है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी ऐसे दलबदल का यह इकलौता उदाहरण नहीं। बलिदानी सैनिकों की विधवाओं के लिए बनाई गई आदर्श हाउसिंग सोसायटी में घोटालों के चलते अशोक चह्वाण को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। वही चह्वाण पिछले दिनों कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गए।

वह लोकसभा चुनाव तो नहीं लड़ रहे, लेकिन राज्यसभा सदस्य बना दिए जाने के बाद भाजपा के लिए प्रचार कर रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री मिलिंद देवड़ा और पूर्व सांसद संजय निरुपम ने भी ऐसा ही किया। दोनों लोकसभा टिकट के तलबगार रहे, लेकिन गठबंधन में हुए सीट बंटवारे में उनकी सीटें कांग्रेस को छोड़नी पड़ीं। निरुपम शिवसेना से कांग्रेस में आए थे, लेकिन देवड़ा तो खानदानी कांग्रेसी थे। भाजपा नेता धैर्यशील मोहिते पाटिल का धैर्य भी टिकट न मिलने पर जवाब दे गया और वह शरद पवार की एनसीपी में शामिल हो गये।

खनिज संपदा समृद्ध झारखंड राजनीतिक अस्थिरता के लिए कुख्यात है। एक निर्दलीय विधायक के मुख्यमंत्री बन जाने का गजब उदाहरण भी वहीं का है। उसी राज्य में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख शिबू सोरेन की बड़ी पुत्रवधू सीता सोरेन भाजपा में शामिल हो गईं। शिबू के छोटे बेटे हेमंत ने कुछ समय पहले ही भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारी से पहले इस्तीफा देकर चम्पाई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया था। सीता का दलबदल सोरेन परिवार में चल रहे सत्ता संघर्ष का नतीजा है। इसका वैचारिक राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं। सत्ता के लिए परिवार छोड़ने वाले क्या किसी दल के सगे हो सकते हैं?

भाजपा से कांग्रेस में आए नवजोत सिंह सिद्धू की राहुल और प्रियंका गांधी से निकटता के चलते पंजाब में सुनील जाखड़ को प्रदेश अध्यक्ष और कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से अपमानजनक तरीके से हटना पड़ा। उनकी नाराजगी समझी जा सकती है। दोनों का भाजपा में चले जाना भी समझा जा सकता है। अमरिंदर की सांसद पत्नी परनीत कौर को कांग्रेस ने पहले ही अनुशासनहीनता में निलंबित कर दिया था, लेकिन पंजाब में आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष के नायक रहे दिवंगत कांग्रेसी मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते सांसद रवनीत सिंह बिट्टू के अचानक भाजपा में शामिल होने को कैसे समझा जाए?

यही सवाल सुशील कुमार रिंकू के मामले में उठता है। मूलत: कांग्रेसी रिंकू जालंधर लोकसभा उपचुनाव आप के टिकट पर जीते थे, मगर अब भाजपा के टिकट पर लड़ रहे हैं। भाजपा पंजाब में इस बार अकेले लोकसभा चुनाव लड़ रही है। शायद इसलिए अन्य दलों से ‘जिताऊ’ उम्मीदवार जुटाने का दबाव हो, जैसा कि 2014 में हरियाणा में नजर आया था। ऐसे में उन निष्ठावान नेताओं-कार्यकर्ताओं का क्या होगा, जो दशकों से पार्टी के झंडे-बैनर उठाते रहे?

मुक्केबाज विजेंदर सिंह का मामला और भी दिलचस्प है। 2019 में कांग्रेस के टिकट पर दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव हारे विजेंदर राहुल गांधी के ट्वीट (पोस्ट) को रिट्वीट (रीपोस्ट) कर सोए और अगले दिन भाजपा में शामिल हो गए। उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन में बसपा के जो दस सांसद जीते थे, उनमें से ज्यादातर ने इस बार नया ठिकाना खोजा है।

उन्हीं में से भाजपा में शामिल हुए रितेश पांडे को ठीक चुनाव से पहले अहसास हुआ कि बसपा में उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा। ऐसे अंतहीन उदाहरण राजनीति में नैतिक मूल्यों के पतन पर शाब्दिक चिंता जताने वाले दलों और नेताओं को कठघरे में खड़ा करते हैं। ऐसे में दलबदल पर अंकुश की उन्हीं से अपेक्षा चरम आशावाद और आदर्शवाद लगता है। दलबदल अभी भी हो रहे हैं। यदि चुनाव के अंतिम चरण के प्रत्याशी घोषित होने तक दलबदल का सिलसिला कायम रहे तो हैरानी नहीं। समय आ गया है कि लोकतंत्र का मखौल बनने से बचाने के लिए दलबदलुओं को सबक सिखाना भी जरूरी है। इसका दारोमदार मतदाताओं पर भी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)