आर. विक्रम सिंह। देश में निर्वाचन पर्व चल रहा है। संभावना है कि एक दल की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आएगी। पूर्ण बहुमत की सरकारें वास्तव में हमारी संसदीय प्रणाली का ऐसा उच्चतम शिखर हैं, जो अपने स्वरूप में राष्ट्रपति प्रणाली वाली शासन पद्धति की अनुभूति कराती है।

राष्ट्रपति व्यवस्था में आम जनता सीधे राष्ट्रपति के लिए वोट डालती है। हमारी व्यवस्था संसदीय है, किंतु व्यवहार में वह राष्ट्रपति वाली है। हम नरेन्द्र मोदी को ही प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में लड़ते हुए देख रहे हैं। भाजपा नेता उन्हीं के नाम पर वोट मांग रहे हैं। एक समय नेहरू जी और इंदिरा जी के नाम पर वोट मांगे जाते थे। यह व्यवस्था अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव जैसी ही है। जैसे नेहरू जी देश में कहीं से भी लड़कर चुनाव जीत सकते थे, वैसे ही आज मोदी भी कहीं से भी लड़कर जीत सकते हैं।

बीते सात दशकों में देश ने संसदीय प्रणाली अनुभव लिया है। इसकी सीमाएं स्पष्ट हो रही हैं। उसमें कुछ अस्थिरता के लक्षण होते हैं, जबकि विकास के लिए स्थिरता आवश्यक है। सीमित आबादी एवं सीमित क्षेत्रफल के एक भाषाभाषी, एक सांस्कृतिक धार्मिक क्षेत्रीय स्वरूप के यूरोपीय देशों में संसदीय या वेस्टमिंस्टर प्रणाली सुविधाजनक व्यवस्था हो सकती है, किंतु भारत जैसे देश में जहां बहुलताएं हैं और इन बहुलताओं को राष्ट्रीयता के एक धागे में पिरोए रखना एक मूलभूत राष्ट्रीय आवश्यकता है, वहां देश में अमेरिकी प्रणाली पर भी एक बहस की जरूरत लग रही है।

संसदीय प्रणाली के प्रारंभ में हमने नेहरू और इंदिरा जैसे सशक्त प्रधानमंत्री देखे हैं तो कालांतर में वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा, चरण सिंह, इंद्रकुमार गुजराल जैसे कमजोर एवं मजबूर प्रधानमंत्री भी देखे। गठबंधनों के माध्यम से किसी प्रकार अपनी सरकार को बचाए रखना ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। कश्मीरी हिंदुओं के पलायन को रोकने में असहाय वीपी सिंह की प्राथमिकता अल्पसंख्यक राजनीति थी। राजीव गांधी को जैसे ही भनक लगी कि चंद्रशेखर रामजन्मभूमि मामले में समझौता कराने के निकट हैं तो उन्होंने समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी। देश ने मनमोहन सिंह जैसे गठबंधन धर्म को मजबूरी बताने वाले प्रधानमंत्री भी देखे हैं।

राष्ट्रपतीय प्रणाली में बंधुआ राष्ट्रपति नहीं हो सकते। इसमें वैकल्पिक या गैरजिम्मेदार सत्ता केंद्र का विकास असंभव है। संसदीय प्रणाली के साथ समस्या यह है कि उसे राष्ट्रीय नेताओं की आवश्यकता नहीं है। देश का प्रधानमंत्री वही होगा, जिसके पक्ष में अधिकतम सांसद लामबंद हों। इसके लिए बहुत से दलीय हितों के घात-प्रतिघात, क्षेत्रीय एवं व्यक्तिगत स्वार्थों के समायोजन की योग्यता अपेक्षित है। राजीव गांधी, देवेगौड़ा, गुजराल और मनमोहन सिंह आदि का संघर्ष से उपजा राष्ट्रीय व्यक्तित्व नहीं था। गठबंधन सरकारों ने देश को अपने कद एवं क्षमता के अनुरूप खड़ा ही होने नहीं दिया।

नेहरू गठबंधन राजनीति के दबाव से मुक्त थे। इसका उपयोग उन्होंने समाजवादी विकास माडल को ढालने में और पंचवर्षीय योजनाओं में लगाया। इस प्रकार देश को एक सशक्त औद्योगिक आधार देने का काम किया। वर्तमान में नरेन्द्र मोदी भी गठबंधन के दबाव की मजबूरियों से मुक्त हैं। इसका परिणाम हम पिछले दस वर्षों में प्रभावशाली हो रहे भारत के रूप में देख रहे हैं। इन दोनों नेताओं का राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व ऐसा रहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद की सीमाओं से आगे जाकर उसे गरिमा प्रदान की। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि गठबंधन सरकार चलाने वाले अधिकांश प्रधानमंत्रियों को तरह-तरह के समझौते करने पड़े।

हमारे यहां सक्षम राष्ट्रीय नेताओं के अभाव का मुख्य कारण यह है कि संसदीय प्रणाली राष्ट्रीय नेतृत्व के विकास की अपेक्षा ही नहीं करती। इसी कारण कुछ ऐसे नेता एकाएक प्रधानमंत्री बन गए, जिनकी देश ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। आखिर किसने सोचा होगा कि देवेगौड़ा, गुजराल या मनमोहन सिंह कभी प्रधानमंत्री बनेंगे। गठबंधन सरकारें वास्तव में राजनीतिक सौदेबाजी करने वाले क्षत्रपों के लिए ही हितकारी होती हैं, जबकि 140 करोड़ की आबादी का विशाल देश ऐसी व्यवस्था चाहता है, जो उसकी समग्र शक्ति एवं क्षमताओं को अभिव्यक्ति दे सके।

इसीलिए देश को पूर्ण बहुमत की सशक्त सरकार की अपेक्षा होती है। ऐसी ही सरकार राष्ट्रीय हित से जुड़े दायित्वों एवं लक्ष्यों को पूर्ण करने में समर्थ होती है। भारतीय लोकतंत्र अपनी समस्त शक्ति एकत्रित कर अपने आदर्श नेतृत्व को अधिक से अधिक जितना अधिकार दे सकता है, वह एक अमेरिकी राष्ट्रपति को स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है। संसदीय प्रणाली में गठबंधन राजनीति, राजनीतिक जोड़तोड़ की कमजोरियां बाहरी दखल की आशंकाएं बढ़ाते हैं। हमारा देश तो स्वयं इसका मुक्तभोगी रहा है। मित्रोखिन आर्काइव्स भारतीय राजनीति में सोवियत संघ के दखल का आंख खोलने वाला दस्तावेज है।

राष्ट्रपति प्रणाली जादू की छड़ी भी नहीं है, जो तत्काल सब कुछ सुधार देगी। इसलिए व्यवस्था के चौकीदारों को जागते रहना आवश्यक है। संसदीय प्रणाली सत्ता में भागीदारी की संभावना बढ़ाती है, लेकिन हमारे यहां जाति, संप्रदाय, क्षेत्रीय समूहों, दबंगों और भ्रष्टतंत्र के हितसाधकों एवं अलगाववादियों की भागीदारी बढ़ाने लगती है। कई क्षेत्रीय दलों में तो समग्र राष्ट्रीय दृष्टि होती भी नहीं है। भारत की अखंडता उनके लिए महत्व का मुद्दा नहीं बनती। वे कई बार तो विदेश नीति को भी अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करते हैं।

चूंकि राष्ट्रपति प्रणाली देश के नागरिकों से सक्षम राष्ट्रीय नेतृत्व विकसित करने की अपेक्षा करती है इसलिए देश को उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक जोड़ने वाले नेतृत्व के सक्षम चरित्र राष्ट्रीय फलक पर दिखने लगेंगे। उनकी संस्कृति की, भाषा की समझ बेहतर होगी। वे कभी बंगाल में, कभी तमिलनाडु में, कभी वनवासियों तो कभी तमिल मछुआरों के बीच रहने वाले होंगे। तब देश में वह राष्ट्रीय कर्मठ एवं समर्पित नेतृत्व आकार लेगा, जिसकी दृष्टि समस्त देश को समाहित किए हुए होगी। अच्छा होगा कि राजनीतिक खानदानों और क्षत्रपों के दिन चले जाएं। देश का ध्यान अपनी ओर खींचने वाला कोई नेता जब राष्ट्रपति शैली में चुनाव लड़ेगा तो देश के गांव-गांव में उन्हें वोट देने वाले मिलेंगे और फिर राष्ट्रीय नेतृत्व के विकास की राह स्वाभाविक रूप से प्रशस्त होगी।

(लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी एवं पूर्व प्रशासक हैं)