विचार: स्वच्छ ऊर्जा में विश्व को राह दिखाता भारत, जल्द हासिल होंगे बड़े लक्ष्य
नवीकरणीय ऊर्जा पर अंतरराष्ट्रीय नीति में भी बदलाव जरूरी है। इसके लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने से लेकर तकनीकी हस्तांतरण की नीति न केवल उदार बनानी होगी बल्कि कई जटिल पहलुओं का भी ध्यान रखना होगा। भारत की सफलता इस मामले में उम्मीद जगाती है। यदि भारत यह लक्ष्य हासिल कर सकता है तो दुनिया भी उस दिशा में आगे बढ़ सकती है।
आदित्य सिन्हा। जलवायु परिवर्तन की निरंतर विकराल होती चुनौती के बीच स्वच्छ ऊर्जा की ओर कदम बढ़ाने को लेकर कोई दुविधा नहीं। इसके बावजूद यह चर्चा जीवाश्म ईंधन और रीन्यूएबल एनर्जी यानी नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर अनावश्यक द्वंद्वों में फंसी है। इसमें ऊर्जा परिदृश्य पर संक्रमण की जटिलता को अनदेखा किया जा रहा है और यह स्थिति ग्लोबल साउथ यानी विकासशील या उभरती हुई अर्थव्यवस्था में अधिक देखने को मिल रही है।
आवश्यकता जीवाश्म ईंधनों को पूरी तरह से त्यागने की नहीं, बल्कि उन पर निर्भरता घटाने की एक संतुलित नीति एवं गैर-जीवाश्म ईंधनों में रणनीतिक निवेश बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ने की है। सौर, पवन, जल, परमाणु और जैव ऊर्जा में निवेश इस रणनीति के मूल में होना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि बीते एक दशक में सौर एवं पवन ऊर्जा की लागत 80 प्रतिशत से भी अधिक घट गई है। इसके चलते कई क्षेत्रों में सौर-पवन ऊर्जा की लागत कोयले और गैस से बनने वाली बिजली से भी किफायती हो गई है। नवीकरणीय ऊर्जा कीमतों में स्थायित्व प्रदान करने के साथ ही ऊर्जा स्वतंत्रता भी सुनिश्चित करती है। एक बार इंस्टाल होने के बाद उसमें लागत लगभग नगण्य रह जाती है।
ये कुछ ऐसे लाभ हैं जिनकी जीवाश्म ईंधन कभी बराबरी कर ही नहीं सकते। ऐसी क्षमताओं से भू-राजनीतिक गतिरोधों से भी सहजतापूर्वक निपटा जा सकता है, क्योंकि ऊर्जा समृद्ध क्षेत्रों में तनाव भड़कने से आपूर्ति शृंखला प्रभावित हो जाती है। रूस-यूक्रेन युद्ध इसका बड़ा उदाहरण रहा। स्वच्छ घरेलू ऊर्जा में निवेश करने वाले देश ऐसी अस्थिरता से बचे रह सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने के लिए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को अपनाना इसलिए और अनिवार्य हो गया है कि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में अकेले जीवाश्म ईंधनों की हिस्सेदारी करीब तीन-चौथाई है। स्पष्ट है कि नवीकरणीय ऊर्जा पर दांव लगाए बिना कार्बन से पीछा छुड़ाना मुश्किल होगा।
इतने व्यापक लाभ के बावजूद यह एक तथ्य है कि विकसित देश भी स्वच्छ ऊर्जा के अपने लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर पाए हैं। शुरुआती स्तर पर बढ़त हासिल करने के बाद यूरोपीय संघ के कदम भी इस मोर्चे पर ठिठक गए। इसमें राजनीतिक दबाव, कीमतों को लेकर चिंता और कार्बन नियमनों को लेकर बढ़ते विरोध जैसे पहलू प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं। अमेरिका में अभी भी 60 प्रतिशत से अधिक बिजली जीवाश्म ईंधनों से पैदा हो रही है। इसका नतीजा यही है कि जो देश जलवायु संकट बढ़ाने के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, उन पर ही स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाने का दबाव है और वह भी उन्हें न्यूनतम समर्थन दिए बिना।
इससे विकासशील देशों के लिए असंभव सी स्थिति बन जाती है। इसे देखते हुए भारत, इंडोनेशिया और ब्राजील सहित अफ्रीका के एक अच्छे बड़े हिस्से के समक्ष दोहरी चुनौती दस्तक देती है। एक ओर उन्हें कार्बन फुटफ्रिंट घटाना है तो दूसरी ओर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना, लोगों को रोजगार दिलाना और करोड़ों लोगों को अभी भी गरीबी के दायरे से बाहर निकालने के लिए अपनी आर्थिकी का दायरा भी बढ़ाना है। स्वाभाविक है कि इन देशों में उद्योगीकरण, शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि एवं जीवन स्तर में सुधार से ऊर्जा की मांग और बढ़ेगी ही।
इस परिदृश्य में भारत की उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं। इस साल जून तक देश में कुल स्थापित बिजली क्षमता में 50.08 प्रतिशत हिस्सेदारी नवीकरणीय ऊर्जा की हो गई। यह पड़ाव पेरिस समझौते के अंतर्गत नेशनल डिटरमाइंड कांट्रिब्यूशन यानी एनडीसी की प्रतिबद्धता के लिए निर्धारित लक्ष्य से पांच साल पहले ही पार हो गया।
इसमें सौर, पवन, पनबिजली, जैव एवं परमाणु ऊर्जा शामिल हैं। कुल 484.82 गीगावाट स्थापित क्षमता में इन नवीकरणीय स्रोतों की हिस्सेदारी 242.78 गीगावाट हो गई। यह किसी भी विकासशील देश के लिए बहुत दुर्लभ मामला है, जिसने अपने लिए निर्धारित लक्ष्य से पहले ही ऐसी सफलता प्राप्त की। इसमें नीतियों की अहम भूमिका रही है।
जहां पीएम-कुसुम और पीएम सूर्य घर जैसी योजनाओं ने सौर ऊर्जा को अपनाना सहज बनाया है, वहीं सोलर पार्क और विंड कारिडोर स्वच्छ ऊर्जा में निवेश को लुभाने में सहायक बने हैं। जैव ऊर्जा के विस्तार ने ग्रामीण आर्थिकी को संबल दिया है। यही कारण है कि जी-20 देशों में भारत न्यूनतम प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वाला देश बना हुआ, जिसने स्वच्छ ऊर्जा के मोर्चे पर ऊंची छलांग लगाई है।
भारत की रणनीति भी बहुत व्यावहारिक है। वह जीवाश्म ईंधनों से एकाएक पीछा नहीं छुड़ा रहा और कोयला एवं गैस आधारित संयंत्र अभी भी प्रमुख ऊर्जा आपूर्तिकर्ता बने हुए हैं। चूंकि भारत ने 2030 तक गैर-जीवाश्म क्षमता को 500 गीगावाट तक ले जाने और 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया है तो उसे ग्रिड आधुनिकीकरण, ऊर्जा भंडारण, क्लीन टेक मैटीरियल रिसाइक्लिंग और ग्रीन हाइड्रोजन जैसे आधुनिक ईंधनों में निवेश बढ़ाना होगा।
चीन भी ऐसी क्षमताओं को प्रदर्शित कर रहा है। वह सोलर पैनल, विंड टरबाइन और इलेक्ट्रिक वाहनों का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया है। फिर भी इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि वह दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जिसकी आधी से अधिक बिजली अभी भी कोयले से बनती है।
नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार जरूरी है, पर यह अपने आप में पर्याप्त नहीं और जीवाश्म ईंधनों के निरंतर होते विस्तार में उत्सर्जन भी सतत रूप से बढ़ता रहेगा। ऐसी स्थिति में सभी के लिए कोई एक ढांचा कारगर साबित नहीं हो सकता। ग्लोबल साउथ को समझना होगा कि जीवाश्म ईंधनों से रातोंरात मुक्ति नहीं पाई जा सकती, लेकिन उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर संसाधन बढ़ाने होंगे।
नवीकरणीय ऊर्जा पर अंतरराष्ट्रीय नीति में भी बदलाव जरूरी है। इसके लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने से लेकर तकनीकी हस्तांतरण की नीति न केवल उदार बनानी होगी, बल्कि कई जटिल पहलुओं का भी ध्यान रखना होगा। भारत की सफलता इस मामले में उम्मीद जगाती है। यदि भारत यह लक्ष्य हासिल कर सकता है तो दुनिया भी उस दिशा में आगे बढ़ सकती है।
(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)
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