जागरण संपादकीय: माकपा के बदले सुर का मतलब, बड़े राजनीतिक बदलाव का सूचक
केरल में 2026 में विधानसभा का चुनाव है जबकि बिहार में इसी साल है। बिहार के विपक्षी मोर्चे में कांग्रेस भी है और वाम दल भी। केरल में माकपा के भाजपा समर्थक रुख का असर बिहार में भी पड़ सकता है। विजयन के बदले रुख के नैरेटिव का भाजपा प्रचार करेगी तो कांग्रेस गठबंधन की राजनीति में सीपीएम पर नए रुख को साफ करने का दबाव बना सकती है।
उमेश चतुर्वेदी। देश की वामपंथी राजनीति हरसंभव मंच से भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सांप्रदायिक एवं समाज विरोधी बताने की मुनादी करती रही है। भाजपा के लिए वह फासीवादी विशेषण का भी इस्तेमाल करती रही है। अब लगता है कि उसका भाजपा को लेकर पुराना सोच बदलने लगा है।
वाम मोर्चे की प्रमुख घटक माकपा यानी सीपीएम की केरल इकाई ने मुख्यमंत्री पी. विजयन के नेतृत्व में अपने एक नोट में हाल में यह कहकर सबको चौंका दिया कि वह मोदी सरकार को फासीवादी या नियो फासिस्ट नहीं मानती। केरल से ही सीपीएम की केंद्रीय समिति के सदस्य आर. बालन भी खुलकर कह चुके हैं कि उनकी पार्टी ने कभी भाजपा सरकार को फासीवादी नहीं कहा।
दिलचस्प यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा को रोकने के लिए गठित विपक्षी मोर्चे आईएनडीआईए की एक धुरी वामपंथी धारा भी है। ऐसे में जब उसकी ही प्रमुख इकाई सीपीएम भाजपा को लेकर अपनी पुरानी राय बदलने लगे तो बहस होना स्वाभाविक है। केरल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष रमेश चेन्निथला को सीपीएम के इस रुख से राज्य में कांग्रेस का भविष्य डगमगाता दिखने लगा है।
उन्होंने यह कहने में देर नहीं लगाई कि सीपीएम का यह नोट केरल के अगले विधानसभा चुनावों में भाजपा समर्थक वोटरों का समर्थन हासिल करने की रणनीति है। सीपीआई यानी भाकपा ने भी माकपा के बदले सुर पर आपत्ति जताई है। इस सियासी तूफान के बीच केरल कांग्रेस के अहम नेता शशि थरूर भी बगावती मुद्रा में आ गए हैं। ऐसे में कांग्रेस का अधिक चिंतित होना स्वाभाविक है।
भाजपा को लेकर सीपीएम का ताजा रुख एक बड़े वर्ग को नागवार गुजर सकता है, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। राजीव गांधी विरोधी लहर के बाद बनी वीपी सिंह की संयुक्त मोर्चा की सरकार को भाजपा के साथ वाममोर्चे ने भी बाहरी समर्थन दिया था, जिसमें सीपीएम मुख्य घटक थी।
इससे पहले 1969 में पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के नेता गुरनाम सिंह की अगुआई में चार दलों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा की सरकार बनाई थी। उसमें अकाली दल के 43, जनसंघ (अब भाजपा) के आठ, सीपीआई के चार और सीपीएम के दो सदस्यों के साथ दो निर्दलीय विधायक भी शामिल थे। उस सरकार के उपमुख्यमंत्री जनसंघ नेता बलराम दास टंडन थे।
उसी सरकार में पंजाब की वामपंथी राजनीति के दिग्गज सतपाल डांग खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री बने थे। पंजाब की तरह बंगाल के 1967 के चुनावों में भी कांग्रेस की पराजय हुई। तब बांग्ला कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई और जनसंघ ने मिलकर सरकार बनाई थी, जिसके अगुआ बांग्ला कांग्रेस के अध्यक्ष अजय मुखर्जी थे।
जब तक कांग्रेस राजनीति की धुरी रही, विपक्षी खेमे के लिए गैर-कांग्रेसवाद बड़ा मुद्दा रहा। 1967 की बंगाल की सरकार रही हो या 1969 की पंजाब की सरकार, उनके गठन में सीपीएम और जनसंघ का साथ आना गैर कांग्रेसवाद का ही नतीजा था। हालांकि भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी के बाद वामपंथी राजनीति के लिए गैर कांग्रेसवाद मुद्दा नहीं रहा, बल्कि कभी पर्दे के पीछे तो कभी सामने से कांग्रेस का साथ देने में वामपंथी राजनीति कहीं ज्यादा सहज रही।
वास्तव में वामपंथी राजनीति हमेशा से विरोधाभासी रही है। दुनिया की चुनी हुई पहली वामपंथी सरकार 1957 में केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद की अगुआई में बनी थी। इसे दो साल बाद ही नेहरूजी की सरकार ने बर्खास्त कर दिया था। इसके बावजूद पूरी वामपंथी राजनीति की वैचारिक यात्रा को देखेंगे तो वह नेहरू के कथित आदर्शवादी स्वप्न की ही प्रशंसक नजर आती है। इस प्रशंसा के बावजूद बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वह कांग्रेस की ही सबसे प्रबल विरोधी रही।
बंगाल में माकपा के नेतृत्व में वाम दलों का 34 साल तक शासन रहा। त्रिपुरा में भी वाम दलों की सत्ता रही। केरल में लगातार दूसरी बार उनकी सरकार है। अतीत में केरल में कभी उनकी तो कभी कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा की सरकार रही है। यानी स्थानीय स्तर पर सीपीएम की राजनीति कांग्रेस विरोध पर ही केंद्रित रही है।
पीएम मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। अब सीपीएम की केरल इकाई का नोट एक तरह से कांग्रेस मुक्त नारे का केरल में विस्तार दिख रहा है। केरल में संघ ताकतवर है और वामपंथी उसके कट्टर विरोधी हैं। यह विरोध अक्सर खूनी रूप लेता रहा है। केरल में संघ समर्थित वोटरों का बड़ा समूह है।
वाम मोर्चे को हराने के लिए संघ समर्थित कई वोटर कांग्रेसी मोर्चे को वोट देते रहे। कांग्रेस को डर है कि विजयन के नए रुख से संघ समर्थक वोटरों में संशय बढ़ेगा और संभव है कि वे वामदलों को किसी भी कीमत पर हराने का विचार त्याग दें। इससे केरल की राजनीति बदल सकती है। सीपीएम के इस रुख से विपक्षी राजनीति भी बदल सकती है।
केरल में 2026 में विधानसभा का चुनाव है, जबकि बिहार में इसी साल है। बिहार के विपक्षी मोर्चे में कांग्रेस भी है और वाम दल भी। केरल में माकपा के भाजपा समर्थक रुख का असर बिहार में भी पड़ सकता है। विजयन के बदले रुख के नैरेटिव का भाजपा प्रचार करेगी तो कांग्रेस गठबंधन की राजनीति में सीपीएम पर नए रुख को साफ करने का दबाव बना सकती है। इससे विपक्षी गठबंधन में गांठ बढ़ सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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