हास्य व्यंग्य: एक सुहानी फिल्म का अचानक अंत, क्रांति की ताप से भाग खड़ा हुआ भ्रष्टाचार
शोध से मालूम हुआ कि दरअसल देश को अब लोकपाल जी की जरूरत ही नहीं थी। केवल कुर्सियां बदल जाने भर से ही भ्रष्टाचार भय से कांपने लगा था। इसमें उनका कोई दोष नहीं था। भ्रष्टाचार के यूं एकदम से गायब हो जाने के बाद बेचारी ईमानदारी अकेली रह गई।
[संतोष त्रिवेदी]। बात उन दिनों की है जब देश क्रांति की चपेट में था। सड़कों पर बेरोक-टोक क्रांति बह रही थी। गड्ढे भी क्रांति से पट गए थे। वे सड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुक्त हो जाने को तैयार थे। भ्रष्टाचार था कि कुंडली मारकर ऊंचे आसन पर बैठा हुआ था। 'आम' परेशान था कि 'खास' की सारी सप्लाई-लाइन कैसे रोकी जाए! ऐसे कठिन समय में क्रांति कुमार अवतरित हुए। आम और अवाम एक हो गए। जल्द ही अंधेरा छंट गया।
कुर्सी दिखने लगी। उनकी सहयात्री ईमानदारी भ्रष्टाचार से मिलने को आतुर हो उठी, जिससे वह उसका गला दबा सके, पर इसमें एक मुश्किल थी। वह हवाई चप्पल से बंधी हुई थी। कुर्सी उसकी पकड़ से बहुत दूर थी। वहां तक पहुंचने के लिए उसे एक मजबूत जूते की दरकार थी। उसने इधर-उधर से कई आरोप इकट्ठे किए। उन्हीं को जूता बनाकर नियमित रूप से उछालना शुरू कर दिया। दिन में दस बार लोकपाल का मंत्रजाप भी शुरू हो गया। राजपथ जनपथ में बदल गया। देखते-ही-देखते बदलाव की आग लग गई।
कुर्सी का फर्नीचर पुराना था, सुलग उठा। क्रांति की ताप से भ्रष्टाचार भाग खड़ा हुआ। अभी आरोप हवा में ही तैर रहे थे, पर कुर्सी उनकी जद में आ गई। ईमानदारी के साथ वे कुर्सी पर बैठ गए। वह चारों तरफ पसरना चाहते थे, पर कुर्सी में लगे दो हत्थे उनकी इस राह का रोड़ा बन गए। उन्होंने एक झटके में लात मारकर दोनों हत्थे उखाड़ फेंके। यह काम इतनी कुशलता से किया गया कि लोकतंत्र को तनिक भी चोट नहीं पहुंची। पूरी पारदर्शिता के साथ उन्होंने अपना मुक्ति-पथ साफ किया। इसके बाद वह सुकून से फैल गए और लोकपाल को एक गठरी में बांधकर रख दिया, ताकि वे प्रदूषित हवा-पानी के संसर्ग से बचे रहें। देश के आम और खास लोकपाल जी का नाम तक भूल गए।
शोध से मालूम हुआ कि दरअसल देश को अब लोकपाल जी की जरूरत ही नहीं थी। केवल कुर्सियां बदल जाने भर से ही भ्रष्टाचार भय से कांपने लगा था। इसमें उनका कोई दोष नहीं था। भ्रष्टाचार के यूं एकदम से गायब हो जाने के बाद बेचारी ईमानदारी अकेली रह गई। सरकार का संसर्ग पाकर वह अब कट्टर हो चुकी थी। कट्टरता को लेकर क्रांति कुमार इतने ईमानदार निकले कि देशभक्त भी हुए तो एकदम कट्टर। अब देश में दो तरह के ही देशभक्त पाए जा रहे थे। एक असली, दूसरे कट्टर। इनके अलावा जो भी बचे थे, वे देशद्रोही हो सकते थे या संदिग्ध नागरिक।
देश को तब तक अच्छे दिनों की लत लग चुकी थी। तभी घटनाक्रम में जबरदस्त मोड़ आ गया। आपातकाल से आजिज आए लोगों ने पहले तो भक्तिकाल की घोषणा की, फिर एक-एक कर सबकी निशानदेही शुरू हो गई। महंगाई और बेरोजगारी जैसी बातें खटकने लगीं। इस समस्या से निपटने के लिए लोगों ने शंख और घड़ियाल बजाने शुरू कर दिए। इससे दोतरफा फायदा हुआ। महंगाई ने आत्महत्या कर ली और बेरोजगारी से लड़ने के लिए अग्निवीर आ गए। इस बीच क्रांति कुमार को लगा कि अचानक उनका ताप कम होने लगा है। वे देशभक्ति को 'सिलेबस' में ले आए। इसे याद करना जरूरी बना दिया गया।
इसे देख नव-राष्ट्रवादी उछल-कूद करने लगे। यह बात खरे राष्ट्रवादियों को अखर गई। इससे वे उबल पड़े। उनके तरकश में अभी भी कई 'मास्टर-स्ट्रोक' बचे थे। सहसा सब कुछ अमृतमय हो उठा। उन्होंने विरोधियों पर तोते और कबूतर छोड़ दिए। वे जगह-जगह सुरक्षा और शांति का संदेश वितरित करने लगे। इससे प्रभावित हो लाभार्थियों ने तुरत-फुरत राष्ट्रवाद की शपथ ले ली। जो बचे, वे पिंजरे में बंद हो गए। उधर ईमानदार सुरापान में व्यस्त थे और इधर 'पांच ट्रिलियन' के कटोरे में 'सुधा-पान' होने लगा।
मेरी आंखों के सामने इतनी अच्छी फिल्म चल रही थी कि तभी पर्दा फाड़कर अच्छे दिनों की पुकार लगाने वाले और क्रांति कुमार दोनों एक साथ प्रकट हो गए। मैं उधर लपकने ही जा रहा था कि श्रीमती जी मुझे झिंझोड़ने लगीं-कितनी बार कहा है कि दिन में 'सनीमा' मत देखा करो। बड़ी देर से पता नहीं क्या अंट-शंट बक रहे हो! अपना घर देखो। कितने दिन से टपक रहा है। इसे जोड़ लो फिर देश जोड़ लेना।
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