जब हर गली-नुक्कड़ के टेलीफोन पर होती थी सिक्कों की खनक, Payphones का वो जमाना आप भूले तो नहीं?
आजकल हर किसी के हाथ में स्मार्टफोन है। वीडियो कॉल से लेकर चैट तक सबकुछ एक बटन की दूरी पर है। ऐसे में क्या आपको वो दिन याद हैं जब एक छोटी-सी बात करने के लिए भी हमें गली के नुक्कड़ पर लगे Payphones का सहारा लेना पड़ता था? जी हां धीरे-धीरे मोबाइल फोन का विस्तार हुआ और Public Phone Booth खाली होने लगे।

लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। आज की पीढ़ी शायद ही समझ पाए कि Payphones पर बात करना कितना खास होता था। किसी दोस्त को बुलाना हो, दूर बैठे रिश्तेदार का हाल-चाल पूछना हो या बस किसी को "हैलो" कहना हो, हमें गली-नुक्कड़ पर लगे उस छोटे-से बूथ तक जाना पड़ता था। अक्सर वहां पहले से ही कोई खड़ा होता था और हमें अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था। उस इंतजार में भी एक अलग ही उत्सुकता होती थी कि कब हमें अपना नंबर डायल करने का मौका मिलेगा!
पेफोन का सबसे अहम हिस्सा थे सिक्के (Coin-Operated Telephones)। 1 रुपये, 2 रुपये या 5 रुपये के सिक्के ही हमारी बातचीत के साथी होते थे। जैसे ही आप सिक्का डालते थे, एक खास-सी खनक सुनाई देती थी और डायल टोन आ जाती थी। अगर बात लंबी चल रही हो, तो बीच-बीच में मशीन बीप करती थी, मानो कह रही हो, "और सिक्के डालो, नहीं तो कॉल कट जाएगी!" उस वक्त हर शब्द की अहमियत होती थी, क्योंकि समय और पैसे दोनों सीमित थे। जी हां, बेकार की बातों में हम अपना एक भी सिक्का बर्बाद नहीं करना चाहते थे।
पेफोन सिर्फ बातचीत का माध्यम नहीं थे, वे कई बार मुलाकातों का अड्डा भी बन जाते थे। दोस्त वहीं मिलते थे, जरूरी संदेश वहीं से दिए जाते थे। किसी इमरजेंसी में, यही पेफोन हमारा सबसे बड़ा सहारा होते थे। "जरूरी कॉल करनी है," कहकर हम किसी को भी लाइन में आगे निकल जाने की गुहार लगा सकते थे और अक्सर लोग समझते भी थे।
जब कॉल करना एक मिशन हुआ करता था
1980 और 90 के दशक में, हर गली-मोहल्ले में एक Payphone हुआ करता था। उसे चलाने वाला दुकानदार अक्सर 'भैया' कहलाता था और उसकी दुकान पर लगी होती थी एक कतार- कोई गांव में बात करना चाहता, कोई नौकरी के इंटरव्यू का जवाब जानना चाहता, तो कोई अपनी मां की आवाज सुनने को बेताब होता। कई बार दुकानदार फोन पर चल रही बातें चुपचाप सुनता और मुस्कुरा देता। कभी तो मुफ्त में थोड़ा एक्स्ट्रा टाइम भी दे देता, अगर उसे लगा कि सामने वाला सच में मजबूरी में बात कर रहा है।
कॉल करने के लिए सिक्कों का इंतजाम पहले करना पड़ता। कभी 1 रुपये का सिक्का तो कभी 25 पैसे का। बात करते-करते जैसे ही “टीं टीं” की आवाज आती, समझो सिक्का डालने का वक्त हो गया है। बता दें, ये फोन बूथ्स रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, स्कूलों के बाहर, यहां तक कि छोटे गांवों में भी मौजूद रहते। कहना गलत नहीं होगा कि एक जमाने में ये कम्युनिकेशन की लाइफलाइन थे।
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कैसे काम करते थे ये Payphones?
इन फोन बूथ्स में एक लैंडलाइन टेलीफोन होता था, जो सिक्का डालने से एक्टिवेट होता था। जैसे ही आप सिक्का डालते, लाइन चालू हो जाती। कॉल की अवधि पर चार्ज लगता- लोकल कॉल सस्ते और एसटीडी/आईएसडी कॉल महंगे। कुछ पीसीओ प्रिंटेड बिल भी देते थे, खासकर जब पोस्टपेड कनेक्शन से ऑपरेट किए जाते।
कैसे इतिहास बन गए Payphones?
साल 2000 के बाद जब मोबाइल फोन सस्ते होने लगे, तब लोगों ने Payphones की ओर जाना कम कर दिया। पहले बीएसएनएल और एमटीएनएल ने पूरे भारत में पीसीओ नेटवर्क फैला रखा था, लेकिन जैसे-जैसे मोबाइल क्रांति आई, लोग अपने जेब में ही फोन लेकर चलने लगे। कॉल रेट सस्ते हुए और इंटरनेट का बोलबाला बढ़ा और यूं ही धीरे-धीरे Payphones और PCO बूथ इतिहास बन गए।
यादें जो आज भी जिंदा हैं
आज भी कुछ रेलवे स्टेशनों या सरकारी दफ्तरों में आपको पुराने Payphone नजर आ सकते हैं- धूल लगे हुए, बंद पड़े हुए, लेकिन वो जादू, जो उन बूथों में था, वो आज की डिजिटल दुनिया में कहीं खो गया है।
वो समय जब एक कॉल की कीमत थी, जब हर शब्द की अहमियत होती थी और जब एक ही कॉल कई हफ्तों की बेचैनी को शांत कर देता था- वो समय आज भी दिलों में कहीं न कहीं जिंदा है।
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