उत्तराखंड ने इस साल देखा सबसे बड़ा दलबदल
अपना उत्तराखंड सोलह साल की उम्र पूरी कर गया है। उत्तराखंड ने तो इस सोलहवें साल में वह सब कुछ देख डाला, जिसे सियासी सेहत के लिए कतई बेहतर नहीं कहा जा सकता।
देहरादून, [विकास धूलिया]: लीजिए, अपना उत्तराखंड सोलह साल की उम्र पूरी कर अब जवानी की दहलीज की ओर अग्रसर हो गया है। यूं तो राजनैतिक परिपक्वता के लिहाज से किसी सूबे की दशा और दिशा तय करने के लिए सोलह साल का वक्त कम नहीं होता, मगर उत्तराखंड ने तो इस सोलहवें साल में वह सब कुछ देख डाला, जिसे सियासी सेहत के लिए कतई बेहतर नहीं कहा जा सकता।
पैदाइश के दिन से ही जिस राजनैतिक उठापटक, या कहें तो अस्थिरता से उत्तराखंड दो-चार होता आ रहा है, इस साल वह चरम पर रही। सत्तारूढ़ पार्टी में बड़े पैमाने पर दलबदल के बाद कांग्रेस सरकार संकट में घिर गई और नौबत राष्ट्रपति शासन तक जा पहुंची। दलबदल कानून की जद में विधायकों के आने के बाद 70 निर्वाचित सदस्यों वाली विधानसभा में 58 विधायक ही रह गए।
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उत्तराखंड के साथ यह अजब सी विडंबना जुड़ी हुई है कि सत्तारूढ़ पार्टी हमेशा अस्थिरता का शिकार बनी रहती है। यह बात कांग्रेस और भाजपा, दोनों पर समान रूप से लागू होती है। यही वजह रही कि सूबे ने अपने सोलह साल के छोटे से सफर में आठ मुख्यमंत्री (भुवन चंद्र खंडूड़ी दो बार) देख लिए।
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नौ नवंबर 2000 को, जब उत्तराखंड (तब नाम उत्तरांचल) अलग राज्य बना, उस वक्त भाजपा आलाकमान ने नित्यानंद स्वामी को अंतरिम सरकार की कमान सौंपी। भाजपा में अंदरखाने जमकर बवाल हुआ। नतीजतन, साल गुजरने से पहले ही स्वामी को रुखसत होना पड़ा। ठीक यही कहानी साल 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में सत्ता हासिल करने के बाद कांग्रेस ने दोहराई।
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तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत को दरकिनार करते हुए कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने नैनीताल के उस समय के सांसद नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बना दिया। हालांकि तिवारी अपने तजुर्बे के बूते पूरे पांच साल सरकार चला ले गए मगर तब कांग्रेस पूरे समय भारी अंतरकलह से जूझती रही।
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वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की सत्ता में वापसी हुई लेकिन इस बार पार्टी नेतृत्व ने किसी निर्वाचित विधायक की बजाए तत्कालीन गढ़वाल सांसद भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। परिणाम वही, सवा दो साल में ही खंडूड़ी को पार्टी की अंदरूनी सियासत का शिकार होकर कुर्सी गंवानी पड़ी।
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अब मौका मिला डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक को, लेकिन हालात नहीं बदले और सवा दो साल बाद, ऐन विधानसभा चुनाव से पहले उनकी जगह फिर खंडूड़ी मुख्यमंत्री बना दिए गए। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सत्ता में लौटी तो फिर उस समय के टिहरी सांसद विजय बहुगुणा अन्य पर भारी पड़े और मुख्यमंत्री बन गए।
विरोधियों को रास नहीं आया, तो दो साल का कार्यकाल पूर्ण करने से पहले ही उनकी भी विदाई हो गई और उनके उत्तराधिकारी बने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री हरीश रावत। इस फरवरी में हरीश रावत ने बतौर मुख्यमंत्री दो साल पूरे किए और 18 मार्च को विधानसभा के बजट सत्र के दौरान नौ पार्टी विधायकों ने उनके खिलाफ बगावत कर दी।
हालांकि इन नौ विधायकों के दलबदल कानून की जद में आने के कारण स्पीकर ने इनकी सदस्यता समाप्त कर दी, लेकिन केंद्र सरकार ने 27 मार्च को राजनैतिक अस्थिरता के मद्देनजर उत्तराखंड के इतिहास में पहली दफा राष्ट्रपति शासन लगा दिया।
हाईकोर्ट से होता हुआ मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और फिर कोर्ट के निर्देश के बाद 10 मई को हुए फ्लोर टेस्ट में हरीश रावत गैर कांग्रेसी विधायकों के गुट प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट की मदद से अपना बहुमत साबित कर सरकार बचाने में कामयाब हो गए।
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हालांकि इस दौरान कांग्रेस को अपना एक और विधायक गंवाना पड़ा। उधर, भाजपा के एक विधायक ने कांग्रेस का दामन थामा तो दोनों की सदस्यता भी समाप्त कर दी गई। कुछ अरसा बाद भाजपा के एक अन्य विधायक ने पार्टी और विधायकी से इस्तीफा देकर कांग्रेस की राह अख्तियार कर ली तो 70 सदस्यों वाली निर्वाचित विधानसभा में महज 58 ही विधायक रह गए।
सदस्यता गंवाने वाले विधायक
कांग्रेस: विजय बहुगुणा, डॉ. हरक सिंह रावत, अमृता रावत, डॉ. शैलेंद्र मोहन सिंघल, कुंवर प्रणव सिंह चैंपियन, सुबोध उनियाल, प्रदीप बत्रा, शैलारानी रावत, उमेश शर्मा काऊ, रेखा आर्य।
भाजपा: भीमलाल आर्य, दान सिंह भंडारी (विस सदस्यता से इस्तीफा दिया)।
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