उत्तराखंड में आधी आबादी: जिम्मेदारी में आगे, हिस्सेदारी में पीछे
उत्तराखंड में आधी आबादी यानी महिलाएं जहां जिम्मेदारी में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही हैं, वहीं हिस्सेदारी के मामले में वे पिछड़ी हुई हैं। आंकड़े यही बयां करते हैं।
देहरादून, [सुमन सेमवाल]: महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान तो नजर आती है, पर सकुचाहट का अनजाना साया उसे फीका कर देता है। वह खुलकर जीना चाहती हैं, लेकिन हजारों बंदिशें उनके पैरों में बेड़ियां डाल देती हैं। उनके मन में भी तमाम सपने आकार लेते हैं, कुछ अपने हिस्से की धूप मांगते हैं तो कुछ उम्मीदों का खुला आसमान। मगर, जन्म से मरण तक उनके हिस्से आता है त्याग, तपस्या और तिरस्कार।
घर हो या बाहर, शिक्षा हो या स्वास्थ्य या फिर रोजगार जैसा अहम मसला। हर मोर्चे पर हमारी आधी आबादी को अपना आधा हक भी नसीब नहीं हो पा पाता। इसकी ताजा तस्वीर इस विधानसभा चुनाव में देखी जा सकती है। मतदान की राष्ट्रीय जिम्मेदारी में महिलाएं पुरुषों से 7.06 फीसद आगे रहीं, लेकिन विधायकी के टिकट में उनकी हिस्सेदारी की बात करें तो भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों ने महज 13 महिलाओं को इस काबिल समझा।
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वहीं, रोजगार की बात करें तो महिलाओं को समान अवसर देने के दावों की पोल सरकार के सेवायोजन कार्यालय में दर्ज आंकड़े ही खोल देते हैं। वर्ष 2014-15 में जितना रोजगार पुरुषों को मिला, उसका पांच फीसद भी महिलाओं के हिस्से नहीं आ पाया। विभिन्न उद्यमों में भी महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरतीं।
अब त्याग और बलिदान की बात करें तो ऐसा लगता है कि यह अकेले महिलाओं की जिम्मेदारी हो। देश की आबादी के विकराल रूप को काबू करने के लिए नसबंदी जैसा अहम निर्णय एकतरफा महिलाओं के ही भरोसे छोड़ा गया है। 2012-13 से 2014-15 के बीच जहां 66157 महिलाओं ने नसबंदी कराई, वहीं पुरुषों का आंकड़ा महज 3656 पर सिमटा रहा।
महिलाओं ने संभाला मोर्चा
इस चुनाव में मतदान
महिला: 69.34 फीसद
पुरुष: 62.28 फीसद
विधायिकी की दावेदारी में अनदेखी
कांग्रेस: 08 टिकट
भाजपा: 05 टिकट
सपा: 03 टिकट
उक्रांद: 01 टिकट
रालोद: 01 टिकट
परिवार नियोजन महिलाओं के भरोसे
नसबंदी की स्थिति
वर्ष--------------महिला-----------पुरुष
2013---23844---1356
2014---22912---1225
2015---19401---1075
सिर्फ 41 महिलाओं को मिला रोजगार
सेवायोजन विभाग के अनुसार वर्ष 2014-15 में कुल 1176 लोगों को रोजगार मिला। जिसमें महिलाओं की संख्या सिर्फ 41 पर सिमटी रही।
विभिन्न उद्यमों में रोजगार की स्थिति (लगभग में)
पर्वतीय जनपद: (देहरादून, चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर व चंपावत): 434116 पुरुष व 127596 महिलाओं को रोजगार
मैदानी जनपद: (हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर) 415601 पुरुष व 79708 महिलाएं
(नोट: उद्यमों में रोजगार के आंकड़े अर्थ एवं संख्या निदेशालय से लिए गए हैं।)
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पैदा करने से शिक्षा तक में भेद
उत्तराखंड के जनगणना के आंकड़ों पर गौर करें तो लड़कों के मुकाबले लड़कियों के पैदा होने की संख्या लगातार घटती जा रही है। वर्ष 2001 में छह वर्ष तक के आयुवर्ग में जहां एक हजार लड़कों पर 908 लड़कियां थीं, वहीं वर्तमान में यह संख्या घटकर 886 रह गई है। जिन्हें जन्म लेने का 'सौभाग्य' मिल रहा है, उन्हें अपने पहले अधिकार के रूप से शिक्षा हासिल करने के लिए भी जिद्दोजहद करनी पड़ रही है।
इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2014-15 में बेसिक से इंटरमीडिएट तक दाखिला लेने वाली बालिकाओं की संख्या बालकों के मुकाबले 6.88 लाख कम रही। चौंकाने वाली बात यह भी है कि स्नातक व स्नातकोत्तर में 2014-15 में छात्रों के मुकाबले 27370 छात्राओं ने अधिक दाखिला लिया।
हालांकि, इसका मतलब यह नहीं कि उच्च शिक्षा में छात्राएं आगे हो गईं, ऐसा तकनीकी रूप से होना संभव नहीं। दरअसल, यह आंकड़ा राज्य की सरकारी शिक्षण संस्थाओं का है और अधिकतर छात्रों का दाखिला अधिक पेशेवर निजी शिक्षण संस्थाओं में दर्ज है।
महिलाओं की शिक्षा की तस्वीर कुल साक्षरता दर में भी देखी जा सकती है। जनगणना 2011 के अनुसार साक्षरता दर में मातृशक्ति 18.13 फीसद पीछे है। यह बात और है कि पढऩे की अथाह ललक के बूते साक्षरता वृद्धि दर में महिलाएं पुरुषों से 6.62 फीसद आगे रहीं।
प्रदेश में मातृ शक्ति की हकीकत
0-6 वर्ष में लिंगानुपात
-वर्ष 2001 (प्रति हजार लड़कों में लड़कियों की संख्या 908 थी)
-वर्ष 2011 (प्रति हजार लड़कों में सिर्फ 886 लड़कियां हैं। शहरी क्षेत्र में यह दर और भी कम 864 है)
शिक्षा की स्थिति (2014-15 में दाखिला)
स्तर----------------------छात्र--------------छात्रा
बेसिक------------------393194---------378980
हाई स्कूल--------------235930-------198411
इंटरमीडिएट------------641515-------582075
स्नातक/स्नातकोत्तर----53230-------80600
17.13 फीसद महिलाएं ही मुखिया
आंकड़ें गवाह हैं कि महिलाएं समाज से लेकर घर की जिम्मेदारी तक में पुरुषों से कहीं आगे हैं, लेकिन हमारे समाज को आज भी महिलाओं को मुखिया के रूप में देखना रास नहीं आता। परिवार के मुखिया के तौर पर उनकी पहचान का आंकड़ा महज 17.13 फीसद पर सिमटा है।
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