भू-प्रलय में मिट गया कई हिमालयी झीलों का वजूद
अब से डेढ़ हजार वर्ष पहले भू-प्रलय आम बात थी। तब कई झीलें बनीं भी और कई झीलें विलुप्त भी हो गईं। इन्हीं में एक उदाहरण है पिथौरागढ़ का नैनी सैनी क्षेत्र।
रानीखेत, [दीप सिंह बोरा]: चौतरफा चुनौतियों से घिरा हिमालयी प्रांत उद्भव के साथ ही भूगर्भीय लिहाज से अतिसंवेदनशील रहा है। करीब दो दशक से उत्तराखंड में झीलों के बनने, बिगड़ने व विलुप्त होने के कारणों पर चल रहे शोध तथा निष्कर्ष ने कुछ ऐसे ही और रहस्य खोले हैं। अब से डेढ़ हजार वर्ष पहले भू-प्रलय आम बात थी। तब कई झीलें बनीं भी और कई झीलें विलुप्त भी हो गईं। इन्हीं में एक उदाहरण है पिथौरागढ़ का नैनी सैनी क्षेत्र। यह कभी झील था, आज इतना कठोर मैदान हो गया है कि हवाई पट्टी बनाई गई है, जिस पर जल्द ही हवाई जहाज उड़ान भरेंगे।
शोध में जुटे कुमाऊं विवि के भूगर्व वैज्ञानिक प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कपकोट (बागेश्वर) से करीब 24 किमी दूर दुलम झील क्षेत्र 31 हजार वर्ष पूर्व बनी थी जो महज 10 वर्ष की आयु में ही भूप्रलय के बाद विलुप्त हो गई। इस झील क्षेत्र से लिए गए गाद आदि के नमूनों की कार्बन डेटिंग से खुलासा हुआ है। प्रो. कोटलिया कहते हैं, झील का वजूद पहाड़ी के धराशायी होने से खत्म हुआ।
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तब से अब तक के अंतराल में कई और बड़े भूप्रलय आए। इनमें कई और झीलें ऐसी ही भीषण प्राकृतिक घटनाओं में अस्तित्व में आईं और कई खत्म भी हो गईं।ऐसी ही एक विकट भूगर्भीय घटना करीब 40 साल पहले भी हुई। जब चाफी गांव (नैनीताल) से कुछ दूर झील पहाड़ी के मलबे में समा गई। इस झील का नाम ही मलबाताल पड़ चुका है।
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भूप्रलय में ये झीलें हुईं विलुप्त
नागरी से नौकुचियाताल तक 11 किमी लंबी झील पर्वतमालाओं के ढह जाने से विलुप्त हो गई। इसके पीछे वही प्राकृतिक टेक्टोनिक फॉल्स रहा। दूसरा बड़ा उदाहरण है पिथौरागढ़ जनपद जो 36 हजार वर्ष पूर्व विशाल सरोवर था। जागर देवल से वड्डा तक 10 किमी लंबा व चार किमी चौड़ा लगभग 42 वर्ग किमी का यह झील क्षेत्र 1890 साल पहले भीषण भूप्रलय में सोर घाटी में बदल गया।
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इसी तरह बनलेख से वर्तमान चंपावत शहर तक भी झील थी। यहां 2010 में शोध को पहुंचे प्रो. कोटलिया ने विलुप्त हो चुकी झील को उस पर बस चुके फुलारा गांव के नाम पर रखा। कई झीलें अब चौखुटिया के तड़ागताल (अल्मोड़ा) की तरह मौसमी बन कर अपना वजूद बचाए है।
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हजार साल पहले प्राकृतिक भूगर्भीय घटनाएं कहीं ज्यादा विनाशकारी थी
वरिष्ठ भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया ने बताया कि कई हजार साल पहले प्राकृतिक भूगर्भीय घटनाएं कहीं ज्यादा विनाशकारी थी। तब भूगर्भीय हलचल अधिक रही होगी। उत्तराखंड की ही तरह जम्मू कश्मीर व हिमाचल में भी ऐसे ही निशान मिले हैं। बसासत कम होने से तब जनहानि का सवाल ही नहीं था। यह सब प्राकृतिक भूकंपीय घटनाएं हैं, जिनका कोई तय चक्र नहीं है। ये टेक्टोनिक फॉल्स कभी भी हो सकते हैं। इन्हीं के कारण हिमालयी प्रांत में झीलें बनी और खत्म भी होती चली गई।
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