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    यह मेरा नहीं, काशी का सम्मान : केदारनाथ

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    Updated: Fri, 20 Jun 2014 11:33 PM (IST)

    लखनऊ। यह मेरा नहीं, काशी का सम्मान है। हूं तो मैं काशी वाला ही अत: कृतज्ञ होकर यह सम्म ...और पढ़ें

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    लखनऊ। यह मेरा नहीं, काशी का सम्मान है। हूं तो मैं काशी वाला ही अत: कृतज्ञ होकर यह सम्मान स्वीकार करता हूं। यह बात ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की घोषणा के बाद लब्ध साहित्यकार डा. केदारनाथ सिंह ने वाराणसी में 'जागरण' से कही।

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    दूरभाष पर हुई संक्षिप्त वार्ता में डा. केदारनाथ ने कहा- काशी ने मुझे बहुत कुछ दिया है इसलिए यह सम्मान भी मैं काशी को ही समर्पित करता हूं। यह हिन्दी भाषा की मनीषा का सम्मान है। मैं तो उसका एक मामूली अदना कद्रदान हूं। हिन्दी जगत में बहुत बड़े महान मनीषी हो चुके हैं। उस श्रृंखला में मैं कहीं नहीं हूं।

    बलिया के चकिया गांव में 1934 में जन्मे केदारनाथ सिंह की प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई। वह पांचवीं कक्षा में पढ़ने के लिए बनारस के उदय प्रताप कालेज में दाखिला लिया और 1952 में यहीं से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर बीए व एमए बीएचयू से उत्तीर्ण किया। इसके बाद दो वर्षो तक उदय प्रताप कालेज में अध्यापन का कार्य किया।

    जागरण ने जब उनसे उदय प्रताप कालेज के छात्र जीवन के संबंध में जानना चाहा तो बोले, मैं इस पूरे कालखंड को अपने भावी विकास की नींव के रूप में देखता हूं। यहीं पहली बार मेरा साहित्य से परिचय हुआ। उसके दो स्त्रोत थे-एक ठाकुर मारकण्डेय सिंह, जिनसे हाईस्कूल में पढ़ा और इंटर में भी। वह एक विलक्षण अध्यापक थे जिनसे पहली बार यह सीखने को मिला कि अच्छा साहित्य क्या होता है और वह क्या होता है जो अच्छा साहित्य नहीं होता। दूसरा स्त्रोत था-महाविद्यालय का साहित्यिक परिवेश, जिसमें अंत्याक्षरी होती थी, कविता, प्रतियोगिता होती थी और प्राय: बड़े विद्वान का भाषण या महत्वपूर्ण कवि सम्मेलन भी होते रहते थे। यहीं पहली बार निराला जी को देखा और अगर भूलता नहीं तो अज्ञेय जी को भी।

    यह कहने पर कि नई पीढ़ी के लिए आपका क्या संदेश हैं, बोले-लगातार खुद को सक्रिय रखिए। सीखने की प्रवृत्ति कभी न छोड़िए। हर वक्त सीखने का प्रयास करते रहिए। जिसने भी सीखना बंद किया, उसके लिए आगे की यात्रा मुश्किल हो गई। दुनिया में कहीं भी किसी भी स्थिति में रहिए, ग्रहणशीलता बनाए रखिए।

    गौरतलब है कि बनारस के उदय प्रताप कालेज में ही लिखा गया था-'झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की'। यह डा.केदारनाथ सिंह का अत्यंत लोकप्रिय गीत है। वह नीम का पेड़ कालेज परिसर में आज भी है पर उसके बाद इससे कोई व्यक्ति नहीं निकला। केदार जी ने उच्च शिक्षा भले ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राप्त की थी किंतु उनके मन में उदय प्रताप कालेज के प्रति एक विशेष श्रद्धा थी। साहित्यकार डा.रामसुधार सिंह बताते हैं कि पिछले दिनों वह बीएचयू के एक कार्यक्रम में आए थे किंतु वहां न रुक कर उदय प्रताप कालेज में उस अतिथि भवन में ठहरे जो कभी उनके गुरु मारकण्डेय सिंह का आवास था। उन्होंने वहां की धूल अपने मस्तक पर लगाई और कहा कि अपने गुरु के कक्ष में रहते हुए मेरा जीवन धन्य हो गया।