शक्ति का स्वरूप हैं सीता
पौराणिक ग्रंथों में श्रीराम को ब्रहम का स्वरूप बताया गया है तो सीताजी को शक्ति का। ब्रहम और शक्ति का सम्मिलन ही संपूर्ण सृष्टि है। शक्ति का स्वरूप होने पर भी सीताजी से क्षमा का गुण सीखा जा सकता है। जानकी जयंती (1
पौराणिक ग्रंथों में श्रीराम को ब्रहम का स्वरूप बताया गया है तो सीताजी को शक्ति का। ब्रहम और शक्ति का सम्मिलन ही संपूर्ण सृष्टि है। शक्ति का स्वरूप होने पर भी सीताजी से क्षमा का गुण सीखा जा सकता है। जानकी जयंती (19 मई) पर विशेष..
अथर्ववेदीय 'सीतोपनिषद्' में सीताजी के स्वरूप का तात्विक विवेचन करते हुए उनको शक्तिस्वरूपा बताया गया है। उनके तीन स्वरूप हैं - पहले स्वरूप में वे शब्दब्रह्ममयी हैं, दूसरे स्वरूप में महाराज सीरध्वज (जनक) की यज्ञभूमि में हलाग्र (हल के अग्र भाग) से उत्पन्न तथा तीसरे स्वरूप में अव्यक्तस्वरूपा हैं। 'शौनकीय तंत्र' नामक ग्रंथ के अनुसार, वे मूल प्रकृति कहलाने वाली आदिशक्ति भगवती हैं, जो इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति एवं साक्षात शक्ति, इन तीन रूपों में प्रकट हुई हैं।
ऋग्वेद' में 'सीता' का अर्थ 'पृथ्वी पर हल से जोती हुई रेखा' होने से सीता 'भूमिजा' तथा 'कृषि की अधिष्ठात्री देवी' भी कहलाईं। विदेहराज जनक की पुत्री होने से उन्हें 'वैदेही' तथा 'जानकी' भी कहा जाता है। जनक को वैदिक ऋषि एवं मिथिला नरेश दोनों रूपों में जाना जाता है। 'वाल्मीकि रामायण' में सीता को 'जनकानां कुले जाता' कहा गया है, परंतु इससे उनका जनक की पुत्री होना स्पष्ट नहीं होता। 'पद्म पुराण', 'वायु पुराण', 'विष्णु पुराण' और 'ब्रह्मांड पुराण' में सीता के पिता का नाम 'सीरध्वज' बताया गया है। भवभूति ने 'उत्तर रामचरित' में 'सीरध्वज' शब्द का प्रयोग 'जनक' के पर्यायवाची के रूप में किया है।
क्षमा पृथ्वी का गुण है और पृथ्वी की पुत्री होने के कारण सीताजी क्षमा की मूर्ति हैं। 'वाल्मीकि रामायण' के 'युद्धकांड' में दृष्टांत है कि हनुमानजी रावण-वध एवं श्रीराम की विजय का शुभ समाचार देने सीताजी के पास आए और उनसे दुष्ट राक्षसियों के संहार की आज्ञा मांगी। तब सीताजी ने हनुमान को रोकते हुए कहा कि प्रभु श्रीराम के सेवक द्वारा स्त्रियों पर प्रहार करना नीति-संगत नहीं है, भले ही वे राक्षसियां अपराधिनी ही क्यों न हों।
सीता जी परम साध्वी एवं पतिपरायणा हैं, जिन्होंने पति के सान्निध्य व सेवा के उद्देश्य से राज-भवन के विलासितापूर्ण जीवन को त्यागकर वनवास स्वीकार किया। 'सुंदरकांड' में प्रसंग है कि लंका में भयग्रस्त एवं कृशकाय सीता को संकट से मुक्त करने के लिए हनुमानजी ने उन्हें कंधे पर बैठाकर श्रीरामचंद्र के पास पहुंचा देने की आज्ञा मांगी। तब सीता ने रावण की जानकारी के बिना उन्हें उठाकर ले जाने को चोरी व बदले की कार्यवाही बताकर अनुचित ठहराया।
अग्नि-परीक्षा के समय सीता ने अग्निदेव से कहा, 'यदि मेरा हृदय एक क्षण के लिए भी श्रीराम से दूर हुआ हो, तो आप मुझे अपनी शरण में लेकर मेरी रक्षा कीजिए।' यह कहते ही वे अग्नि के भीतर समा गईं। फिर, अग्निदेव सीताजी को लेकर प्रकट हुए और बोले, 'सीता पवित्र हैं। मैं इन देवगणों की उपस्थिति में इन्हें आपको समर्पित कर रहा हूं।'
'कूर्मपुराण' के अनुसार, सीता अग्नि में समा गईं थीं और मायामयी सीता को ही रावण लंका ले गया था। रावण-वध के उपरांत माया-सीता अग्नि में विलीन हो गईं और वास्तविक सीता ने अग्नि से पुन: प्रकट होकर राम का सान्निध्य पाया। 'भावार्थ रामायण' के अनुसार, तेजस्विनी सीता के स्पर्श से रावण भस्म हो जाता, लेकिन यह अन्य राक्षसों के विनाश की दृष्टि से उचित नहीं होता। अत: सीताजी ने रावण के साथ?अपनी छाया भेजी। 'तुलसीकृत रामायण' में भी उल्लेख है, 'जौं लगि करौं निशचर नासा। तुम पावक महं करहुं निवासा।।'
वस्तुत: सीता व राम अभिन्न तत्व हैं (गिरा अरथ जल बीचि सम, कहिअत भिन्न न भिन्न)। एक ही दिव्य ब्रह्मज्योति सीता-राम के रूप में अभिव्यक्त है (एकं ज्योतिरभूदद्वेधा), अत: उनका विरह संभव नहीं। ब्रह्म से शक्ति कभी अलग नहीं हो सकती। एक कथा है कि निर्वासन के पश्चात पुन: अग्नि-परीक्षा को उन्होंने उचित नहीं माना और पृथ्वी से प्रार्थना की कि यदि मैं निष्कलंक हूं, तो आप स्वयं प्रकट होकर मुझे अपने अंक में स्थान दें। तभी अकस्मात पृथ्वी फट गई और भूदेवी सीता को अपने अंक में बैठाकर धरती में समा गईं।
गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें आदर्श स्त्री और वात्सल्यमयी माता के रूप में तो केशवदास एवं सेनापति ने सम्राज्ञी के रूप में प्रस्तुत किया है।
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