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    नवरात्र के चौथे दिन कूष्मांडा देवी के महात्म्य व स्तुति

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    Updated: Sat, 27 Sep 2014 03:56 PM (IST)

    नवरात्रि के चौथे दिन कूष्मांडा देवी की उपासना की जाती है। इस दिन साधक को अत्यंत पवित्र मन से कूष्मांडा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के ...और पढ़ें

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    नवरात्रि के चौथे दिन कूष्मांडा देवी की उपासना की जाती है। इस दिन साधक को अत्यंत पवित्र मन से कूष्मांडा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए। अपनी मंद, हल्की हंसी के द्वारा ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कूष्मांडा नाम से पुकारा गया है।

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    जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार व्याप्त था, तब इसी देवी ने अपने प्रभाव से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया। देवी की आठ भुजाएं हैं, इसलिए अष्टभुजा भी कहलाईं। इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जप माला है। इस देवी का वाहन सिंह है।

    चतुर्थ देवी कूष्मांडा श्लोक-मंत्र

    चतुर्थ देवी कूष्मांडा श्लोक-मंत्र

    सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।

    दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु

    नवरात्रों में चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरुप की ही उपासना की जाती है। मां कूष्माण्डा की उपासना से आयु, यश, बल, और स्वास्थ्य में वृद्धि होती है।

    ध्यान

    वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।

    सिंहरूढा अष्टभुजा कुष्माण्डा यशस्वनीम्घ्

    भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।

    कमण्डलु चाप, बाण, पदमसुधाकलश चक्त्र गदा जपवटीधराम्घ्

    पटाम्बर परिधानां कमनीया कृदुहगस्या नानालंकार भूषिताम्।

    मंजीर हार केयूर किंकिण रत्नकुण्डल मण्डिताम्।

    प्रफुल्ल वदनां नारू चिकुकां कांत कपोलां तुंग कूचाम्।

    कोलांगी स्मेरमुखीं क्षीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम् घ् स्तोत्र

    दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दारिद्रादि विनाशिनीम्।

    जयंदा धनदां कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्घ्

    जगन्माता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।

    चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्घ्

    त्रैलोक्यसुंदरी त्वंहि दुरूख शोक निवारिणाम्।

    परमानंदमयी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्घ् कवच

    हसरै मे शिररू पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।

    हसलकरीं नेत्रथ, हसरौश्च ललाटकम्घ्

    कौमारी पातु सर्वगात्रे वाराही उत्तरे तथा।

    पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।

    दिग्दिध सर्वत्रैव कूं बीजं सर्वदावतुघ् चौथे स्वरूप में देवी कुष्मांडा भक्तों को रोग, शोक और विनाश से मुक्त करके आयु, यश, बल और बुद्धि प्रदान करती हैं। यह बाघ की सवारी करती हुईं अष्टभुजाधारी, मस्तक पर रत्नजडित स्वर्ण मुकुट पहने उज्जवल स्वरूप वाली दुर्गा हैं। इन्होंने अपने हाथों में कमंडल, कलश, कमल, सुदर्शन चक्र, गदा, नुष, बाण और अक्षमाला धारण किए हैं। अपनी मंद मुस्कान हंसी से ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इनका नाम कुष्मांडा पड़ा।

    वह सूरज के घेरे में रहती हैं। सिर्फ उनके अंदर इतनी शक्ति है, जो सूरज की तपिश को सहन कर सकें। मान्यता है कि वह ही जीवन की शक्ति प्रदान करती हैं। उपासना मंत्र

    सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।

    दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तुमे।।

    उनकी मधुर मुस्कान हमारी जीवनी शक्ति का संवर्धन करते हुए हमें हंसते हुए कठिन से कठिन मार्ग पर चलकर सफलता पाने को प्रेरित करती है। मां के दिव्य स्वरूप का ध्यान हमें आत्मिक प्रकाश प्रदान करते हुए हमारी प्रज्ञा शक्ति को जाग्रत करके हमारी मेधा को उचित तथा श्रेष्ठ कार्यो में प्रवृत्त करता है।

    मान्यता है कि मां अपनी हंसी से संपूर्ण ब्रहमांड को उत्पन्न करती हैं और सूर्यमंडल के भीतर निवास करती हैं। सूर्य के समान दैदीप्यमान इनकी कांति व प्रभा है। आठ भुजाएं होने के कारण ये अष्टभुजा देवी के नाम से विख्यात हैं। मान्यता के अनुसार, उन्हें कुम्हड़े की बलि प्रिय है, इसलिए भी ये कूष्मांडा देवी के नाम से विख्यात हैं।