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चलते रहो कहती है जिंदगी

एक अध्ययन कहता है कि भारत में टीनएजर्स की आत्महत्या के मामले बहुत बढ़ रहे हैं। यहां तक कि वह विश्व में नंबर दो पर है। आखिर वे कौन सी वजहें हैं जो युवा सपनों को खिलने से पहले ही मुरझाने पर विवश कर रही हैं? युवा ऐसे ़कदम न उठाएं, इसके लिए परिवार और समाज की भूमिका क्या हो, बता रहे हैं एक्सप‌र्ट्स।

By Edited By: Published: Tue, 02 Apr 2013 03:47 PM (IST)Updated: Tue, 02 Apr 2013 03:47 PM (IST)
चलते रहो कहती है जिंदगी

फिल्म 3 इडियट्स में जब एक युवा कॉलेज प्रशासन से त्रस्त होकर आत्महत्या जैसा भयावह कदम उठाता है तो दर्शकों की आंखें नम हो जाती हैं। आखिर वे कौन सी वजहें हैं जो युवा सपनों को उगने से पहले ही मार दे रही हैं? जीवन का सबसेऊर्जावान दौर क्यों इतना निराश-हताश है?

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भारत में होने वाली युवा मौतों को लेकर एक राष्ट्रीय अध्ययन पिछले वर्ष के जून महीने में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ। इस अध्ययन के मुताबिक युवाओं की आत्महत्या के मामले में भारत नंबर दो पर है। केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में देश की लगभग 22्र प्रतिशत आबादी है। यहां 42 प्रतिशत पुरुष और 40 प्रतिशतस्त्रियां हर वर्ष आत्महत्या कर रहे हैं। महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में 15 प्रतिशत आत्महत्याएं होती हैं। पुरुषों में 15 वर्ष तक की उम्र में आत्महत्या करने वालों का आंकडा 40 प्रतिशत है, जबकि 15  से 29  वर्ष तक की आयु की लगभग 56 प्रतिशत स्त्रियां आत्महत्या अधिक करती हैं। स्टडी में पाया गया कि वर्ष 2010  में भारत में 1.87  लाख लोगों ने आत्महत्या की। स्टडी के मुताबिक भारत में शिक्षा, नौकरी, संबंधों में परेशानी, उत्पीडन या सेहत जैसी तमाम परेशानियों के चलते हर साल हजारों युवा मौत को गले लगा रहे हैं। परिणामों के बारे में जानते हुए भी स्वयं को खत्म  करना ही आत्महत्या है। आत्महत्या की भावना किसी खास पल में उठाया गया कदम जरूर  है, लेकिन एक्सप‌र्ट्स मानते हैं कि दरअसल इसकी प्रक्रिया लंबे समय से व्यक्ति के दिमाग में चल रही होती है।

कौन हैं आत्महत्या करने वाले

आत्महत्या के खतरों के अनुसार इन मामलों को अलग-अलग श्रेणी में बांटा जा सकता है। अतीत में भी आत्महत्या का प्रयास करने वाले सर्वाधिक डेंजर  जोन  में आते हैं, मीडियम रिस्क में वे लोग आते हैं जो कई बार अपने मन में ऐसा सोचते हैं या इसकी प्लानिंग करते हैं, लो रिस्क में वे आते हैं जो कहते हैं,मैं मर जाना चाहता/चाहती हूं। एक और श्रेणी है इंपल्सिव  सुसाइड की।  इसमें अचानक किसी खास मनोदशा में व्यक्ति बिना सोचे-समझे ऐसा कदम उठा लेता है।

यह सच है कि आज युवा कई चुनौतियों से जूझ रहा है। बेरोजगारी,  नौकरी खोना, आर्थिक परेशानियां, असहाय-अकेला या निराश होना, किसी कारणवश खुद  पर शर्म महसूस करना, अपराध-बोध से ग्रस्त होना, घरेलू या किसी भी तरह की हिंसा झेलने के अलावा कलह या प्रताडना, मानसिक या गंभीर शारीरिक बीमारी को आत्महत्या के प्रमुख कारणों में गिना जा सकता है।

ऐसे लोग अकसर कुछ वाक्य बोलते नजर आते हैं, मैं जीवन से तंग आ चुका/चुकी हूं, मैं नहीं जानता/जानती कि क्या करूं, मैं मर जाना चाहता/चाहती हूं, जीने का अब कोई मतलब नहीं है..।

अगर हो कोई ऐसा

अगर आपके परिवार का कोई सदस्य, दोस्त या आसपास कोई ऐसा है, जो इन लक्षणों से ग्रस्त है तो कुछ बातों का ध्यान रखें-

1.  उसकी बातें ध्यान से सुनें और इसके बाद खतरे के बारे में विचार करें।

2.  सोचें कि उसकी मदद कैसे कर सकते हैं।

3.  उसकी तकलीफ को समझें। इसे नॉर्मल  कहते हुए नजरअंदाज न  करें।

4.  उस पर दोषारोपण न करें, न बहस करें।

5.  खुद  को उसकी मदद के लिए तैयार रखें और उससे लगातार बातचीत करते रहें।

आत्महत्या समस्या का हल नहीं है। संविधान में आत्महत्या का प्रयास करने वालों पर मामला दर्ज होता है, किसी को भी अपनी जान लेने का अधिकार नहीं है। दरअसल आत्महत्या मेडिकल प्रॉब्लम से अधिक सामाजिक समस्या है।

बचाव के प्रयास

आत्महत्या के प्रयास में ट्रीटमेंट दो तरह से होता है-फर्माकोथेरेपी और साइकोथेरेपी। चिकित्सकों की एक टीम कई स्तरों पर इसके बचाव का प्रयास करती है। इसमें रोगी और उसके परिजनों से लगातार संवाद के जरिये समस्या की जड तक पहुंचा जाता है। युवाओं को आत्महत्या से बचाने के लिए वैज्ञानिक तरीके से काम करने की जरूरत है। इसका प्रभाव टीनएजर के पूरे जीवन पर पडता है, इसलिए इलाज भी कई स्तरों पर चलता है।

भ्रांतियां और मिथक

टीनएज  में आत्महत्या को लेकर समाज में कई तरह की भ्रांतियां हैं। पहला मिथक यह है कि किसी दबाव या बुरे अनुभव के कारण टीनएजर्स  ऐसे कदम उठाते हैं। जबकि सर्वे बताते हैं कि टीनएज में आत्महत्या करने वालों में बडी संख्या ऐसे लोगों की है, जो किसी न किसी मानसिक असंतुलन या अवसाद (डिप्रेशन) से ग्रस्त हैं। अकसर कहा जाता है कि बच्चों के सामने आत्महत्या जैसी घटनाओं या बातों का जिक्र करने से उन पर गलत प्रभाव पडता है, लेकिन ऐसी बातों का प्रभाव सामान्य बच्चे पर नहीं पडता, बल्कि अवसादग्रस्त बच्चे पर ही पडता है। इसलिए व्यक्ति के व्यवहार को समझने की कोशिश होनी चाहिए। शोध बताते हैं कि आत्महत्या करने वालों में 90 प्रतिशत संख्या ऐसे लोगों की है, जो पहले से किसी डिप्रेशन,  मेंटल डिसॉर्डर  या उत्पीडन के शिकार रहे हैं।

सचेत हो जाएं

डिप्रेशन  के लक्षण दिखें

हर वक्त दुख, बेचैनी या खालीपन महसूस हो, बच्चा लगातार स्कूल में खराब प्रदर्शन करे, खुश न रहे, सामाजिक-पारिवारिक गतिविधियों से दूर हो, खेलकूद या दोस्तों में मन न लगे, अधिक सोए या अनिद्रा से ग्रस्त हो, वजन  व भूख अचानक घटने-बढने लगे।

बाइपोलर डिसॉर्डर 

नींद कम या ज्यादा आना, एकाएक बातूनी हो जाना, चिल्लाना, असामान्य विचार, मूड स्विंग, आक्रामक व्यवहार, अपनी योग्यता व महत्व को लेकर विरोधाभासी बातें करना।

ंपेरेंट्स डायरी

1. हर कीमत पर बच्चे की मदद को तैयार रहें। उसकी शारीरिक-भावनात्मक स्थिति पर नजर रखें और प्रोफेशनल की मदद लेने को तैयार रहें।

2. उसे भावनात्मक लगाव और सहयोग दें। उसकी बातें सुनें, आलोचना न करें और लगातार संवाद बनाए रखें।

3. उसे अधिकाधिक सूचनाएं दें। लाइब्रेरी की सदस्यता दिलाएं, स्पो‌र्ट्स क्लब जॉइन कराएं, दोस्तों से मिलने-जुलने को प्रेरित करें, इंटरनेट पर दिलचस्प जानकारियां लेने को कहें, सामाजिक संस्था से जोडें।

फ्रेंड्स डायरी

1. अगर आपका दोस्त डिप्रेशन से गुजर रहा है तो उसकी किसी भी बात को हलके ढंग से न लें। उसकी बात को गंभीरता से सुनें, उसकी प्रतिक्रिया को समझने की कोशिश करें।

2. उसे प्रोफेशनल हेल्प लेने को कहें, अकेला न छोडें और जरूरत पडने पर उसके साथ भी जाएं। 3. किसी बडे व भरोसेमंद व्यक्ति से इस बारे में चर्चा करें। इसके अलावा अपने और दोस्त के पेरेंट्स से भी इस विषय में बात करें।

डॉक्टर डायरी

1. स्थिति के बारे में कयास न लगाएं और हर चीज को गंभीरता से लें।

2. पेशेंट की शारीरिक हालत के अनुसार तुरंत बचाव का प्रयास शुरू कर दें।

3. सुनिश्चित करें कि पेशेंट को पर्याप्त हवा मिले, उसके हृदय और फेफडों की जांच करें। यदि रोगी अचेत हो और उसकी हालत गंभीर हो तो तुरंत बचाव के उपाय शुरू करें। इसके लिए एबीसीडी मेथड कारगर है। ए: एयरवे (रोगी को पर्याप्त हवा मिले), बी: ब्रीदिंग (सांस लेने में समस्या न हो), सी: सर्कुलेशन (रक्त-संचार), डी: डिफिसिट (शरीर में कोई कमी न हो )।

(इनपुट्स : मूलचंद मेडिसिटी, दिल्ली में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. जितेंद्र नागपाल एवं आईसीयू कंसल्टेंट डॉ. विक्रम खत्री)

इंदिरा राठौर


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