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बदल रही हैं स्त्रियां बदल रहा है समाज

पिटने की, दुत्कारे जाने की और अत्याचारों को सहने की भी कोई तो सीमा होती है उसके आगे होता है-विद्रोह...

By Babita kashyapEdited By: Published: Mon, 07 Nov 2016 10:15 AM (IST)Updated: Mon, 07 Nov 2016 10:37 AM (IST)
बदल रही हैं स्त्रियां बदल रहा है समाज

मम्मी मेरी बात मानिए, चंदा से मालिश करा लीजिए, सारी थकान उतर जाएगी।' 'नहीं, तुम्हारी चंदा बहुत महंगी है, एक घंटे के तीन सौ रुपए! इट इज टू मच।' 'मम्मी पार्लर वाली तो दो हजार लेती है।' दीप्ति के फोन करते ही कुछ देर बाद चंदा हाजिर हो गई। चौड़े माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, करीने से तराशी गई भौहें, बालों का ढीला सा जूड़ा, चेहरे पर नई रौनक चंदा के नए अवतार की गवाही दे रहे थे। यह एक साल पहले देखी गई चंदा नहीं थी। आते ही हंसकर बोली, 'मैडम जी! बड़े दिनों बाद याद किया?' 'बस कल ही आई हूं। आज याद कर लिया।' मालिश में कुशल चंदा की उंगलियों की बाजीगरी ने एक प्रेशर प्वॉइंट को दबाकर मेरे दस घंटे के हवाई

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सफर की जकडऩ और थकान को निचोड़ लिया। देह पर सरपट भागती उंगलियों के अचानक थम जाने से एहसास हुआ कि एक घंटा हो गया है। चंदा से पूछा, 'जल्दी में तो नहीं हो, चाय पिओगी?'

'मैडम जी! अभी चाय बनाकर लाती हूं।'

चाय पीते-पीते बोली, 'मैडम जी! आपकी छोटी बहू की बिटिया बड़ी सुंदर है। बड़ी होकर हीरोइन बनेगी।'

-'चंदा! हीरोइन नहीं, बुद्धिमान, गुणवान और संस्कारी बने।'

-'पर जमाना तो क्या कहते हैं उसको, हां! ग्लैमर का है, फिर सुंदर लड़की को लड़के भी

चुटकी बजाते पसंद कर लेते हैं। अच्छे संस्कार कौन देखता है?'

-'तभी तो रोज घर टूटते हैं।'

- 'घर तो संस्कारवालियों के भी टूटते हैं, वे दिखाई भले न दें, पर अंदर से खंडहर होते हैं। इसलिए मुझे आजाद-ख्याल, मस्तमौला, हंसती-खिलखिलाती आज के जमाने की लड़कियां बहुत पसंद आती हैं। 25 सालों से न जाने कितनी मेम साहबों की जिंदगी देखी है। सब कुछ देख-सुनकर इस नतीजे पर पहुंची हूं कि संस्कारों के लिए

अपनी जिंदगी तबाह मत करो।'

- 'देखा सुना गलत भी हो सकता है?'

- 'पर खुद का भोगा हुआ तो गलत नहीं हो सकता। क्षमा करना मैडम जी! मुझे तो अच्छे संस्कारों से कुछ भी नहीं मिला।

हाथ रीते ही रहे। पंद्रह साल की थी, तब ब्याह कर गोंडा से भागलपुर आई थी। विदाई के समय माई ने कहा था, 'सास-ससुर को अपना माई-बाप समझकर उनकी सेवा करना। पलट के जवाब नहीं देना, पति को परमेश्वर समझना। मायके के सुख की तरफ मुड़के भी न देखना' कैसी सीख थी? जैसे पिंडदान कर दिया हो।''

- 'चंदा, यही सीख हमें ससुराल से जोड़ती है।'

- 'मैडम जी! यह सीख मानी। सास-ससुर की सेवा की, बदले में वे गाली देते रहे, हम सुनते हे, वे पीटते गए, मैं पिटती गई। मायके अपने दु:खों की पिटारी लेकर कभी नहीं गई। पति को परमेश्वर मानकर उसकी लंबी उमर के लिए निर्जल व्रत करती रही। पर आदमी ने क्या दिया? दिल्ली से छठ, होली या दीवाली पर आता, तो अपनी माई और बहन की लगाई-बुझाई पर भरोसा करके, अपनी मर्दानगी जताकर मां-बाप की सेवा का झुनझुना पकड़ाकर चला जाता। पंद्रह साल बाद घूरे की तरह हमरे दिन बहुरे। आदमी को पीलिया हो गया। घर का परहेजी खाना खाने की सलाह पर मुझे दिल्ली भेजा गया। यहां आकर नई दुनिया, नई रोशनी देखी।'

-'खुली हवा में सांस लेकर तुम्हें खुशी तो मिली होगी?'

- 'खुशी इतनी आसानी से कहां मिलती है? दो बेटियां थीं, सास की पोते की रट थी। पेट से थी, तो सास ने लड़का होने के लिए पता नहीं कौन-कौन सी जड़ी बूटी खिलाई। लड़का तो नहीं हुआ, पर बेटी जरूर विकलांग

पैदा हुई। मुझे खूब कोसा गया। पैसे की तंगी होने लगी। परिवार बढ़ा। घर भी भेजते थे। लड़कियों की पढ़ाई भी जरूरी थी। मैंने एक घर में काम पकड़ लिया। मेम साहब की लड़कियों की उतरनें मेरी लड़कियों पर सजने लगीं। अब आदमी घरखर्च के लिए पैसे कम देने लगा। मैंने दो घर और पकड़ लिए। उसे और मौज आ गई। रात को देर से आने लगा। पर खाना गरम और मछली-गोश्त ही चाहिए था। एक दिन तबियत खराब होने के कारण गोश्त नहीं पका पाई, खिचड़ी सामने रख दी। खिचड़ी उठाकर फेंक दी। बेल्ट उताकर सटासट मारने लगा। खाना बनाने के लिए साली की तबियत खराब है, सुबह जब धंधा करने गई थी, तब तबियत खराब नहीं थी। उसने मेरी मेहनत को गाली देकर मुझे बहुत ज्यादा चोट पहुंचाई। उबलते गुस्से ने कहा- तोड़ दो इसका मुंह लेकिन संस्कार आड़े पड़ गए। बड़ा बदतमीज और नालायक है। मैडम जी!

यह सिलसिला यहीं नहीं थमा। एक दिन बोला लड़कियों को भी काम पर लगा लो।

पढ़-लिखकर क्या करेंगी।' मैंनें मना कर दिया। उसने सामान बाहर फेंक दिया- जा, भाग जा, लड़कियों को लेकर। जहां मर्जी हो पढ़ा लेना।

रातभर लड़कियों के साथ बैठी रही। मजबूर थी, कहां जाती? उसके जुर्म सहती गई। फिर किस्मत ने पलटा खाया। मेरी सहेली तुलसी मुझे कैंट ले आई। यहां फ्री क्वार्टर और फ्री पानी बिजली के बदले में दो काम ज्यादा करने लगी। बाकी काम के पैसे मिलने लगे। मेम साहब ने जया का एडमीशन विशेष बच्चों के स्कूल 'आशा' में करा दिया। जया की चिंता दूर होने से खाली समय में और घरों में भी काम करने लगी। मालिश भी चल पड़ी

थी। पहनने-ओढऩे के कपड़े भी मिल जाते थे।

साहब लोगों के पुराने कूलर, फ्रिज और टी.वी. से हमारा घर भी सज गया था। पेड़-पौधों- फूलों से प्यार के कारण एक छोटी सी बगिया भी सजा ली थी लेकिन आदमी की वही गाली और मारपीट। कई-कई दिनों तक गायब रहना। खर्च के लिए एक धेला नहीं देना। उसकी मर्दानगी की धौंस सहते-सहते हम पक गए थे।

कोई आठ महीने पहले की बात है, मैडम जी! पांच दिन बाद घर लौटा जया बुखार से तप रही थी। मेम साहब की दी दवाई का भी कुछ असर नहीं हो रहा था। मैंने दवाई के लिए पैसे मांगे, तो दहाड़ उठा- 'घर में घुसा नहीं कि

धंधेवालियों की तरह पैसे चाहिए। ले पैसे, अभी देता हूं -' बेल्ट उतारकर मारने दौड़ा। रीता- गीता ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया- 'नहीं पापा! अब नहीं' गुस्से में बौखला गया। उल्टी-सीधी गालियां बकता हुआ सामान फेंकने लगा - 'निकल जाओ तुम सब मेरे घर से।' उसने मुझे रास्ता सुझा दिया। मैंनेसंस्कारों

की चादर और मां की पति-परमेश्वर वाली बेडिय़ों को उतार फेंका। गरजकर बोली- 'यह मेरा घर है, मेम साहब के घर में मैं काम करती हूं, क्वाटर मुझे मिला है। घर से बाहर तुम जाओगे।'कमरे में जाकर मैंने चुन-चुनकर उसका सामान एक बैग में भरा और फेंक दिया- 'चला जा चुपचाप यहां से।Ó वह तोडफ़ोड़ करने लगा। मैंने फिर डपटकर कहा'चुपचाप जाता है या सिक्योरिटी गार्ड बुलाऊं।'

वह चला गया। एक महीने बाद लौटा, छ: हजार रुपए देकर बोला- 'ले, घर के खर्च के लिए।' मैंने उसके रुपए लौटा दिए- 'नहीं चाहिए तुम्हारे

रुपए, जहां चाहो रहो, शराब पिओ, जुआ खेलो या दूसरी औरत के साथ रहो। मैंने तुम्हें अपनी जिंदगी और घर से बेदखल कर दिया है।' जब से वह चला गया है, घर में बड़ी शांति है। पहले मैं एक दिन में एक मालिश करती थी,

अब जितनी मिलती है, उतनी करती हूं। चंदा काम से नहीं घबराती है। गीता पेट्रोल पंप पर काम करते हुए बी.ए. कर रही है। रीता पढ़ाई के साथ ब्यूटी पार्लर में काम करती है।''

- 'लगता है उसने ही तुम्हारा कायाकल्प किया है।'

-''हां मैडम जी! जिंदगी के 40 साल दूसरों की दी हुई जिंदगी जी है, अब अपनी जिंदगी जी रही हूं। अब मेरे घर में बीड़ी, शराब की बदबू नहीं बल्कि बेला-चमेली महकती है। साग-सब्जी उगा लेती हूं। जब कभी काम से थककर आते हैं, खाना बनाने का मन नहीं करता, तो लड़कियां मोबाइल से आर्डर करके 'अपनी रसोई' होटल से खाना मंगा लेती हैं। कभी-कभी सिनेमा भी देख आते हैं। पिज्जा आइसक्रीम का स्वाद भी चख लेते हैं। अब तो एक ही सपना हम तीनों की आंखों में पल रहा है कि ब्यूटी पार्लर खोलें। आप सब की दुआ से यह सपना भी चंदा पूरा कर लेगी। अपनी कमाई, अपना घर, अपना सुख-चैन और अपनी जिंदगी के सपने यह सब मुझे पति परमेश्वर को घर से निकालने के बाद मिले हैं।''

- 'अंत भला तो सब भला। तुम लोग खुश रहो।'

-'हां मैडम जी यह खुशी छीनकर मिली है। इसलिए इसका मजा ही कुछ और है। चंदा तीन सौ रुपए लेकर मुस्कुराती हुई चली गई और मैं सोचने को विवश हो गई कि समाज बदल रहा है। सोच बदल रही है। सुखद आश्चर्य है कि परिवर्तन का बिगुल नीचे के स्तर से बजने लगा है, तो आवाज ऊपर तक जरूर जाएगी- संभल जाओ, हम जाग गए हैं।

द्वारा ब्रिगेडियर रणवीर सिंह, जे.पी. विष्णु प्रयास हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट,

विष्णुपुरम (मारवाड़ी कालोनी) पोस्ट जोशीमठ (चमोली)-246243 उत्तराखंड

डॉ. कृष्णलता सिंह लघुकथा: खुद को छोड़ दो

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