Move to Jagran APP

प्रेमचंद की लघुकथा: नरक का मार्ग

संसार में ऐसी भी कोई स्त्री है, जिसका पति उसका श्रृंगार देखकर सिर से पांव तक जल उठे?

By Babita kashyapEdited By: Published: Mon, 29 Aug 2016 10:49 AM (IST)Updated: Mon, 29 Aug 2016 10:58 AM (IST)
प्रेमचंद की लघुकथा: नरक का मार्ग

रात 'भक्तमाल' पढ़ते-पढ़ते न जाने कब नींद आ गयी। कैसे-कैसे महात्मा थे जिनके लिए

loksabha election banner

भगवत-प्रेम ही सब कुछ था, इसी में मग्न रहते थे। ऐसी भक्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। क्या मैं वह तपस्या नहीं कर सकती? इस जीवन में और कौन-सा सुख रखा है? आभूषणों से जिसे प्रेम हो जाने , यहां तो इनको देखकर आंखें फूटती है; धन-दौलत पर जो प्राण देता हो वह जाने, यहां तो इसका नाम सुनकर ज्वर- सा चढ़ आता हैं। कल पगली सुशीला ने कितनी उमंगों से मेरा श्रृंगार किया था, कितने प्रेम से बालों में फूल गूंथे। कितना मना करती रही, न मानी। आखिर वही हुआ जिसका मुझे भय था। जितनी देर उसके साथ हंसी थी, उससे कहीं ज्यादा रोयी। संसार में ऐसी भी कोई स्त्री है, जिसका पति उसका श्रृंगार देखकर सिर से पांव तक जल उठे? कौन ऐसी स्त्री है जो अपने पति के मुंह से ये शब्द सुने—तुम मेरा परलोग बिगाड़ोगी, और कुछ नहीं, तुम्हारे रंग-ढंग कहे देते हैं, और मनुष्य उसका दिल विष खा लेने को चाहे। भगवान्! संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं। आखिर मैं नीचे चली गयी और 'भक्तिमाल' पढऩे लगी। अब वृंदावन बिहारी ही की सेवा करुंगी उन्हीं को अपना श्रृंगार दिखाऊंगी, वह तो देखकर न जलेगे। वह तो हमारे मन का हाल जानते हैं।

2

भगवान! मैं अपने मन को कैसे समझाऊं! तुम अंतर्यामी हो, तुम मेरे रोम-रोम का हाल जानते हो। मैं चाहती हुं कि उन्हें अपना इष्ट समझूं, उनके चरणों की सेवा करुं, उनके इशारे पर चलूं, उन्हें मेरी किसी बात से, किसी व्यवहार से नाममात्र, भी दु:ख न हो। वह निर्दोष हैं, जो कुछ मेरे भाग्य में था वह हुआ, न उनका दोष है, न माता-पिता का, सारा दोष मेरे नसीबों ही का है। लेकिन यह सब जानते हुए भी जब उन्हें आते देखती हूं, तो मेरा दिल बैठ जाता है, मुह पर मुरदनी सी-छा जाती है, सिर भारी हो जाता है, जी चाहता है इनकी सूरत न देखूं, बात तक करने को जी नही चाहता;कदाचित् शत्रु को भी देखकर किसी का मन इतना क्लांत नहीं होता होगा। उनके आने के समय दिल में धड़कन सी होने लगती है। दो-एक दिन के लिए कहीं चले जाते हैं तो दिल पर से बोझ उठ जाता है। हंसती भी हूं, बोलती भी हूं, जीवन में कुछ आनंद आने लगता है लेकिन उनके आने का समाचार पाते ही फिर चारों ओर अंधकार! चित्त की ऐसी दशा क्यों है, यह मैं नहीं कह सकती। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि पूर्वजन्म में हम दोनों में बैर था, उसी बैर का बदला लेने के लिए उन्होंने मुझसे विवाह किया है, वही पुराने संस्कार हमारे मन में बने हुए हैं। नहीं तो वह मुझे देख-देख कर क्यों जलते और मैं उनकी सूरत से क्यों घृणा करती? विवाह करने का तो यह मतलब नहीं हुआ करता! मैं अपने घर कहीं इससे सुखी थी। कदाचित् मैं जीवन-पर्यन्त अपने घर आनंद से रह सकती थी। लेकिन इस लोक-प्रथा का बुरा हो, जो अभागिन कनयाओं को किसी-न-किसी पुरुष के गलें में बांध देना अनिवार्य समझती है। वह क्या जानता है कि कितनी युवतियां उसके नाम को रो रही है, कितने अभिलाषाओं से लहराते हुए, कोमल हृदय उसके पैरो तल रौंदे जा रहे है? युवति के लिए पति कैसी-कैसी मधुर कल्पनाओं का स्रोत्र होता है, पुरुष में जो उत्तम है, श्रेष्ठ है, दर्शनीय है, उसकी सजीव मूर्ति इस शब्द के ध्यान में आते ही उसकी नजरों के सामने आकर खड़ी हो जाती है।लेकिन मेरे लिए यह शब्द क्या है। हृदय में उठने वाला शूल, कलेजे में खटकनेवाला कांटा, आंखों में गडऩे वाली किरकिरी, अंत:करण को बेधने वाला व्यंग बाण! सुशीला को हमेशा हंसते देखती हूं। वह कभी अपनी दरिद्रता का गिला नहीं करती; गहने नहीं हैं, कपड़े नहीं हैं, भाड़े के नन्हेंसे मकान में रहती है, अपने हाथों घर का सारा काम-काज करती है , फिर भी उसे रोतेनहीे देखती अगर अपने बस की बात होती तो आज अपने धन को उसकी दरिद्रता से बदल लेती। अपने पतिदेव को मुस्कराते हुए घर में आते देखकर उसका सारा दु:ख दारिद्रय छूमंतर हो जाता है, छाती गज-भर की हो जाती है। उसके प्रेमालिंगन में वह सुख है, जिस पर तीनों लोक का धन न्योछावर कर दूं।

3

आज मुझसे जब्त न हो सका। मैंने पूछा—तुमने मुझसे किसलिए विवाह किया था? यह प्रश्न महीनों से मेरे मन में उठता था, पर मन को रोकती चली आती थी। आज प्याला छलक पड़ा। यह प्रश्न सुनकर कुछ बौखला-से गये, बगलें झाकने लगे, खीसें निकालकर बोले—घर संभालने के लिए, गृहस्थी का भार उठाने के लिए, और नहीं क्या भोग-विलास के लिए? घरनी के बिना यह आपको भूत का डेरा-सा मालूम होता था। नौकर-चाकर घर की सम्पति उडाये देते थे। जो चीज जहां पड़ी रहती थी, कोई उसको देखने वाला न था। तो अब मालूम हुआ कि मैं इस घर की चौकसी के लिए लाई गई हूं। मुझे इस घर की रक्षा करनी चाहिए और अपने को धन्य समझना चाहिए कि यह सारी सम्पति मेरी है। मुख्य वस्तु सम्पत्ति है, मै तो केवल चौकी दारिन हूं। ऐसे घर में आज ही आग लग जाये! अब तक तो मैं अनजान में घर की चौकसी करती थी, जितना वह चाहते हैं उतना न सही, पर अपनी बुद्धि के अनुसार अवश्य करती थी। आज से किसी चीज को भूलकर भी छूने की कसम खाती हूं। यह मैं जानती हूं। कोई पुरुष घर की चौकसी के लिए विवाह नहीं करता और इन महाशय ने चिढ़ कर यह बात मुझसे कही। लेकिन सुशीला ठीक कहती है, इन्हें स्त्री के बिना घर सुना लगता होगा, उसी तरह जैसे पिंजरे में चिडिय़ा को न देखकर पिंजरा सूना लगता है। यह हम स्त्रियों का भाग्य!

4

मालूम नहीं, इन्हें मुझ पर इतना संदेह क्यो होता है। जब से नसीब इस घर में लाया हैं, इन्हें बराबर संदेह-मूलक कटाक्ष करते देखती हूं। क्या कारण है? जरा बाल गुथवाकर बैठी और यह होठ चबाने लगे। कहीं जाती नहीं, कहीं आती नहीं, किसी से बोलती नहीं, फिर भी इतना संदेह! यह अपमान असह्य है। क्या मुझे अपनी आबरु प्यारी नहीं? यह मुझे इतनी छिछोरी क्यों समझते हैं, इन्हें मुझपर संदेह करते लज्जा भी नहीं आती? काना आदमी किसी को हंसते देखता है तो समझता है लोग मुझी पर हंस रहे है। शायद इन्हें भी यही बहम हो गया है कि मैं इन्हें चिढ़ाती हूं। अपने अधिकार के बाहर से बाहर कोई काम कर बैठने से कदाचित् हमारे चित्त की यही वृत्ति हो जाती है। भिक्षुक राजा की गद्दी पर बैठकर चैन की नींद नहीं सो सकता। उसे अपने चारों तरफ शुत्र दिखायी देंगें। मै समझती हूँ कि, सभी शादी करने वाले बुड्ढ़ो का यही हाल है।

आज सुशीला के कहने से मैं ठाकुर जी की झांकी देखने जा रही थी। अब यह साधारण बुद्धि का आदमी भी समझ सकता हैकि फूहड़ बहू बनकर बाहर निकलना अपनी हंसी उड़ाना है, लेकिन आप उसी वक्त न जाने किधर से टपक पड़े और मेरी ओर तिरस्कापूर्ण नेत्रों से देखकर बोले—कहां की तैयारी है?

मैंने कह दिया, जरा ठाकुर जी की झाँकी देखने जा रही हूँ। इतना सुनते ही त्योरियाँ चढ़ाकर बोले—तुम्हारे जाने की कुछ जरुरत नहीं। जो अपने पति की सेवा नहीं कर सकती, उसे देवताओं के दर्शन से पुण्य के बदले पाप होता है। मुझसे उडऩे चली हो। मैं औरतों की नस-नस पहचानता हूँ।

ऐसा क्रोध आया कि बस अब क्या कहूँ। उसी दम कपड़े बदल डाले और प्रण कर लिया कि अब कभी न दर्शन करने जाऊँगी। इस अविश्वास का भी कुछ ठिकाना है! न जाने क्या सोचकर रुक गयी। उनकी बात का जवाब तो यही था कि उसी क्षण घरसे चल खड़ी हुई होती, फिर देखती मेरा क्या कर लेते।

इन्हें मेरा उदास और विमन रहने पर आश्चर्य होता है। मुझे मन-में कृतघ्न समझते है। अपनी समझ में इन्होंने मरे से विवाह करके शायद मुझ पर एहसान किया है। इतनी बड़ी जायदाद और विशाल सम्पत्ति की स्वामिनी होकर मुझे फूले न समाना चाहिए था, आठो पहरइनका यशगान करते रहना चाहिये था। मैं यह सब कुछ न करके उलटे और मुंह लटकाए रहती हूं। कभी-कभी बेचारे पर दया आती है। यह नहीं समझते कि नारी-जीवन में कोई ऐसी वस्तु भी है जिसे देखकर उसकी आंखों में स्वर्ग भी नरकतुल्य हो जाता है।

5

तीन दिन से बीमार हैं। डाक्टर कहते हैं, बचने की कोई आशा नहीं, निमोनिया हो गया है। पर मुझे न जाने क्यों इनका गम नहीं है। मैं इनती वज्र-हृदय कभी न थी।न जाने वह मेरी कोमलता कहाँ चली गयी। किसी बीमार की सूरत देखकर मेरा हृदय करुणा से चंचल हो जाता था, मैं किसी का रोना नहीं सुन सकती थी। वही मैं हूँ कि आज तीन दिन से उन्हें बगल के कमरे में पड़े कराहते सुनती हूँ और एक बार भी उन्हें देखने न गयी, आँखों में आँसू का जिक्र ही क्या। मुझे ऐसा मालूम होता है, इनसे मेरा कोई नाता ही नहीं मुझे चाहे कोई पिशाचनी कहे, चाहे कुलटा, पर मुझे तो यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि इनकी बीमारी से मुझे एक प्रकार का ईर्ष्यामय आनंद आ रहा है। इन्होंने मुझे यहाँ कारावास दे रखा था —मैं इसे विवाह का पवित्र नाम नहीं देना चाहती- यह कारावास ही है। मैं इतनी उदार नहीं हूँ कि, जिसने मुझे कैद मे डाल रखा हो उसकी पूजा करुँ, जो मुझे लात से मारे उसक पैरो का चुँमू। मुझे तो मालूम हो रहा था। ईश्वर इन्हें इस पाप का दण्ड दे रहे हैं। मै नि: संकोच होकर कहती हूँ कि, मेरा इनसे विवाह नहीं हुँआ है। स्त्री किसी के गले बाँध दिये जाने से ही उसकी विवाहिता नहीं हो जाती। वही संयोग विवाह का पद पा सकता है। जिंसमे कम-से-कम एक बार तो हृदय प्रेम से पुलकित हो जाय! सुनती हूं, महाशय अपने कमरे में पड़े- पड़े मुझे कोसा करते हैं, अपनी बीमारी का सारा बुखार मुझ पर निकालते हैं, लेकिन यहाँ इसकी परवाह नहीं। जिसका जी चाहे जायदाद ले, धन ले, मुझे इसकी जरुरत नहीं!

6

आज तीन दिन हुए, मैं विधवा हो गयी, कम-से-कम लोग यही कहते हैं। जिसका जो जी चाहे कहे, पर मैं अपने को जो कुछ समझती हूं वह समझती हूं। मैंने चूडिय़ा नहीं तोड़ी, क्यों तोड़ू? क्यों तोड़ू? मांग में सेंदुर पहले भी न डालती थी, अब भी नहीं डालती। बूढ़े बाबा का क्रिया-कर्म उनके सुपुत्र ने किया, मैं पास न फटकी। घर में मुझ पर मनमानी आलोचनाएं होती हैं, कोई मेरे गुंथे हुए बालों को देखकर नाक सिंकोड़ता हैं, कोई मेरे आभूषणों पर आंख मटकाता है, यहां इसकी चिंता नहीं। उन्हें चिढ़ाने को मैं भी रंग=-बिरंगी साडिय़ा पहनती हूं, और भी बनती-संवरती हूं, मुझे जरा भी दु:ख नहीं हैं। मैं तो कैद से छूट गयी। इधर कई दिन सुशीला के घर गयी। छोटा-सा मकान है, कोई सजावट न सामान, चारपाइयां तकनहीं, पर सुशीला कितने आनंद से रहती है। उसका उल्लास देखकर मेरे मन में भी भांति-भांति की कल्पनाएं उठने लगती हैं-उन्हें कुत्सित क्यों कहुं, जब मेरा मन उन्हें कुत्सित नहीं समझता ।इनके जीवन में कितना उत्साह है।आंखे मुस्कराती रहती हैं, ओठों पर मधुर हास्य खेलता रहता है, बातों में प्रेम का स्रोत बहताहुआजान पड़ता है। इस आनंद से, चाहे वह कितना ही क्षणिक हो, जीवन सफल हो जाता है, फिर उसे कोई भूल नहीं सकता, उसी स्मृति अंत तक के लिए काफी हो जाती है, इस मिजराब की चोट हृदय के तारों को अंतकाल तक मधुर स्वरों में कंपित रखसकती है।

एक दिन मैंने सुशीला से कहा-अगर तेरे पतिदेव कहीं परदेश चले जाए तो रोत-रोते मर जाएगी!

सुशीला गंभीर भाव से बोली—नहीं बहन, मरूंगी नहीं, उनकी याद सदैव प्रफुल्लित करती रहेगी, चाहे उन्हें परदेश में बरसों लग जाएं।

मैं यही प्रेम चाहती हूं, इसी चोट के लिए मेरा मन तड़पता रहता है, मै भी ऐसी ही स्मृति चाहती हूं जिससे दिल के तार सदैव बजते रहें, जिसका नशा नित्य छाया रहे।

7

रात रोते-रोते हिचकियां बंध गयी। न-जाने क्यो दिल भर आता था। अपना जीवन सामने एक बीहड़ मैदान की भांति फैला हुआ मालूम होता था, जहां बगूलों के सिवा हरियाली का नाम नहीं। घर फाड़े खाता था, चित्त ऐसा चंचल हो रहा था कि कहीं उड़ जाऊं। आजकल भक्ति के ग्रंथों की ओर ताकने को जी नहीं चाहता, कही सैर करने जाने की भी इच्छा नहीं होती, क्या चाहती हूं वह मैं स्वयं भी नहीं जानती। लेकिन मै जो जानती वह मेरा एक-एक रोम-रोम जानता है, मैं अपनी भावनाओं को संजीव मूर्ति हैं, मेरा एक-एक अंग मेरी आंतरिक वेदना का आर्तनाद हो रहा है।

मेरे चित्त की चंचलता उस अंतिम दशा को पहंच गयी है, जब मनुष्य को निंदा की न लज्जा रहती है और न भय। जिन लोभी, स्वार्थी माता-पिता ने मुझे कुएं में ढकेला, जिस पाषाण-हृदय प्राणी ने मेरी मांग में सेंदुर डालने का स्वांग किया, उनके प्रति मेरे मन में बार-बार दुष्कामनाएं उठती हैं। मैं उन्हे लज्जित करना चाहती हूं। मैं अपने मुंह में कालिख लगा कर उनके मुख में कालिख लगाना चाहती हूं मैअपने प्राणदेकर उन्हे प्राणदण्ड दिलाना चाहती हूं।मेरा नारीत्व लुप्त हो गया है,। मेरे हृदय में प्रचंड ज्वाला उठी हुई है।

घर के सारे आदमी सो रहे है थे। मैं चुपके से नीचे उतरी, द्वार खोला और घर से निकली, जैसे कोई प्राणी गर्मी से व्याकुल होकर घर से निकले और किसी खुली हुई जगह की ओर दौड़े। उस मकान में मेरा दम घुट रहा था।

सड़क पर सन्नाटा था, दुकानें बंद हो चुकी थी। सहसा एक बुढिय़ा आती हुई दिखायी दी। मैं डरी कहीं यह चुड़ैल न हो। बुढिय़ा ने मेरे समीप आकर मुझे सिर से पांव तक देखा और बोली- किसकी राह देख रही हो

मैंने चिढ़कर कहा-मौत की!

बुढिय़ा-तुम्हारे नसीबों में तो अभी जिन्दगी के बड़े-बड़े सुख भोगने लिखे हैं। अंधेरी रात गुजर गयी, आसमान पर सुबह की रोशनी नजर आ रही हैं।

मैने हंसकर कहा-अंधेरे में भी तुम्हारी आंखें इतनी तेज हैंकि नसीबों की लिखावट पढ़ लेती हैं?

बुढिय़ा-आंखों से नहीं पढ़ती बेटी, अक्ल से पढ़ती हूं, धूप में चूड़े नही सफेद किये हैं।। तुम्हारे दिन गये और अच्छे दिन आ रहे है। हंसो मत बेटी, यही काम करते इतनी उम्र गुजर गयी। इसी बुढिय़ा की बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थीं, वे आज फूलों की सेज पर सो रही है, जो जहर का प्याल पीने को तैयार थीं, वे आज दूध की कुल्लियां कर रही हैं। इसीलिए इतनी रात गये निकलती हू कि अपने हाथों किसी अभागिन का उद्धार हो सके तो करुं। किसी से कुछ नहीं मांगती, भगवान् का दिया सब कुछ घर में है, केवल यही इच्छा है उन्हे धन, जिन्हे संतान की इच्छा है उन्हें संतान, बस औरक्या कहूं, वह मंत्र बता देती हूं कि जिसकी जो इच्छा जो वह पूरी हो जाये।

मैंने कहा-मुझे न धन चाहिए न संतान। मेरी मनोकामना तुम्हारे बस की बात नहीं है।

बुढिय़ा हंसी—बेटी, जो तुम चाहती हो वह मै जानती हूं; तुम वह चीज चाहती हो जो संसार में होते हुए स्वर्ग की है, जो देवताओं के वरदान से भी ज्यादा आनंदप्रद है, जो आकाश कुसुम है, गुलर का फूल है और अमावसा का चांद है। लेकिन मेरे मंत्र में वह शंक्ति है जो भाग्य को भी संवार सकती है। तुम प्रेम की प्यासी हो, मैं तुम्हे उस नाव पर बैठा सकती हूं जो प्रेम के सागर में, प्रेम की तंरगों पर क्रीड़ा करती हुई तुम्हे पार उतार दे।

मैंने उत्कंठित होकर पूछा—माता, तुम्हारा घर कहां है।

बुढिय़ा-बहुत नजदीक है बेटी, तुम चलों तो मैं अपनी आंखों पर बैठा कर ले चलूं।

मुझे ऐसा मालूम हुआ कि यह कोई आकाश की देवी है। उसेक पीछ-पीछे चल पड़ी।

8

आह! वह बुढिया, जिसे मैं आकाश की देवी समझती थी, नरक की डाइन निकली। मेरा सर्वनाश हो गया। मैं अमृत खोजती थी, विष मिला, निर्मल स्वच्छ प्रेम की प्यासी थी, गंदे विषाक्त नाले में गिर पड़ी वह वस्तु न मिलनी थी, न मिली। मैं सुशीला का-सा सुख चाहती थी, कुलटाओं की विषय-वासना नहीं। लेकिन जीवन-पथ में एक बार उलटी राह चलकर फिर सीधे मार्ग पर आना कठिन है?

लेकिन मेरे अध:पतन का अपराध मेरे सिर नहीं, मेरे माता-पिता और उस बूढ़े पर है जो मेरा स्वामी बनना चाहता था। मैं यह पंक्तियां न लिखतीं, लेकिन इस विचार से लिख रही हूं कि मेरी आत्म-कथा पढ़कर लोगों की आंखे खुलें; मैं फिर कहती हूं कि अब भी अपनी बालिकाओ के लिए मत देखों धन, मत देखों जायदाद, मत देखों कुलीनता, केवल वर देखों। अगर उसके लिए जोड़ा का वर नहीं पा सकते तो लड़की को क्वारी रख छोड़ो, जहर दे कर मार डालो, गला घोंट डालो, पर किसी बूढ़े खूसट से मत ब्याहो। स्त्री सब-कुछ सह सकती है। दारुण से दारुण दु:ख, बड़े से बड़ा संकट, अगर नहीं सह सकती तो अपने यौवन-काल की उंमगों का कुचला जाना।

रही मैं, मेरे लिए अब इस जीवन में कोई आशा नहीं । इस अधम दशा को भी उस दशा से न बदलूंगी, जिससे निकल कर आयी हूं।

मुंशी प्रेमचंद

(साभार: wikisource.org)

लघुकथा : लैला

लघुकथा: झांकी


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.