Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    दुष्कर्म मामलों में समझौते की गुंजाइश नहीं

    By Edited By:
    Updated: Tue, 27 Aug 2013 10:27 PM (IST)

    सुप्रीम कोर्ट दुष्कर्म जैसे गंभीर अपराध में सजा को लेकर सख्त है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि दुष्कर्म समझौते के जरिए निपटाया जाने वाला अपराध नहीं है। सजा ...और पढ़ें

    Hero Image

    नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। सुप्रीम कोर्ट दुष्कर्म जैसे गंभीर अपराध में सजा को लेकर सख्त है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि दुष्कर्म समझौते के जरिए निपटाया जाने वाला अपराध नहीं है। सजा जुर्म की गंभीरता के हिसाब से दी जानी चाहिए। अभियुक्त का धर्म, जाति, वर्ण, सामाजिक या अर्थिक स्तर, दुष्कर्मी का पीड़िता से विवाह का वादा करना, लंबी कानूनी लड़ाई या पक्षकारों के बीच समझौता सजा घटाने का आधार नहीं हो सकता। कोर्ट ने कड़े कानून के बावजूद सजा देने में दुष्कर्मी के प्रति नरमी अपनाने पर निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों को आगाह किया है। साथ ही पीड़िता के साथ समझौते को आधार बनाकर सजा कम करने की सामूहिक दुष्कर्म के दो दोषियों की याचिका खारिज कर दी।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    पढ़ें : रेप मामलों में स्थिति बद से बदतर होने पर गुस्से में सुप्रीम कोर्ट

    मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम, न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई और रंजन गोगोई की पीठ ने सामूहिक दुष्कर्म के दोषी हरियाणा के शिंभू और बालू राम की सजा कम करने की मांग खारिज कर दी। दोनों ने पीड़िता संग समझौते को आधार बनाते हुए सामूहिक दुष्कर्म मामले में तय न्यूनतम दस साल कारावास की सजा को भुगत चुकी कैद तक सीमित करने का अनुरोध किया था। दोनों ने हलफनामा पेश किया था जिसमें पीड़िता ने उनकी सजा घटाने में आपत्ति न होने की बात कही थी। दोनों अभियुक्तों को सत्र अदालत व पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने सामूहिक दुष्कर्म के जुर्म में दस-दस साल कारावास और जुर्माने की सजा सुनाई थी। 1995 का सामूहिक दुष्कर्म का यह मामला हरियाणा के नांगल चौधरी थाने का है।

    पीठ की ओर से मुख्य न्यायाधीश ने फैसला लिखते हुए कहा है कि दुष्कर्म के मामले में पक्षकारों में समझौता होने के आधार पर सजा कम नहीं की जा सकती। दुष्कर्म समझौते के जरिए निपटाया जाने वाला अपराध नहीं है। यह समाज के प्रति अपराध है और ऐसे मामलों को समझौते के जरिए निपटाने के लिए पक्षकारों पर नहीं छोड़ा जा सकता। अदालत कभी भी इस बात पर पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सकती कि समझौता पत्र में पीड़िता की ओर से सजा कम करने के लिए दी गई सहमति वास्तविक और सही है। हो सकता है कि अभियुक्तों ने ऐसा समझौता करने के लिए उस पर दबाव डाला हो या फिर इतने सालों से मुकदमे की प्रताड़ना झेलते-झेलते वह इस विकल्प को अपनाने के लिए मजबूर हुई हो।

    कोर्ट ने कहा है कि इस तरह की दलीलें स्वीकार करने से पीड़िता पर अतिरिक्त दबाव बनेगा। अभियुक्त समझौता करने के लिए पीड़िता पर अपने हर प्रभाव का इस्तेमाल करेंगे। ऐसे अपराध में समझौते को सजा कम करने का आधार बनना सुरक्षित नहीं होगा। सीआरपीसी की धारा 376 (2) में अदालत को विशेष परिस्थिति में कानून में तय न्यूनतम सजा को घटाने का विवेकाधिकार दिया गया है। इसका इस्तेमाल पक्षकारों के बीच हुए समझौते को आधार बनाकर नहीं किया जा सकता। वैसे भी महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को देखते हुए फरवरी 2013 में लागू हुए क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट कानून में इस धारा को समाप्त कर दिया गया है। पीठ ने कहा कि धारा 376 का कठोर कानून होने के बावजूद देखा गया है कि कई निचली अदालतें व हाईकोर्ट दुष्कर्मी को सजा देने में नर्म रवैया अपनाते हैं। कई बार इन अदालतों ने उपरोक्त विवेकाधिकार का इस्तेमाल करते हुए दुष्कर्मी की सजा को भोगी जा चुकी कैद तक घटा दिया। इस कानून की आड़ लेकर सजा घटाने का रवैया ऐसे अपराधों में उचित दंड देने की जरूरत के प्रति असंवेदनशीलता दर्शाता है।

    मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर