सर्जिकल स्ट्राइक के बाद LOC से सटे इलाकों में रहने वाले लोगों में डर का माहौल
एलओसी के साथ सटे गांवों में ग्रामीणों की जांच पढ़ताल तेज हो गई है। स्थानीय ग्रामीणों को तारबदंदी के आर-पार जाने के लिए सुरक्षाबलों को अपना पहचान पत्र बताना अनिवार्य हो गया है।
सिलीकोट/ बगतूर, जेएनएन । जम्मू कश्मीर को गुलाम कश्मीर से अलग करने वाली नियंत्रण रेखा,जिसे खूनी लकीर भी कहते हैं, पूरी तरह शांत है। लेकिन स्थानीय लोगों के चेहरों पर डर और खौफ की लकीरें साफ नजर आती हैं। सब सहमे हैं और तबाही की आशंका के चलते अपने लिए सुरक्षित ठिकानों का बंदोबस्त कर रहे हैं। कोई अपने रिश्तेदारों के पास जाने की तैयारी में जुटा है तो कोई अपने घर के पिछवाड़े में बने पुराने बंकर को रहने लायक बना रहा है।
फखरदीन खटाना ने कहा कि जनाब मैं तो उड़ी ब्रिगेड पर हमले के दिन ही समझ गया था कि अब जंग छिड़ सकती है। लेकिन जब उसके बाद फौरन कुछ नहीं हुआ तो उम्मीद बंधी कि अमन रहेगा। लेकिन वीरवार की सुबह के बाद से सबकुछ बदल गया है।
एलओसी पर स्थित सिलीकोट(उड़ी) गांव के रहने वाले फखरदीन ने अपने गांव से करीब 500 मीटर की दूरी पर एक नाले के साथ बने घरों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि पता यह कौन सा गांव है,यह ख्वाजाबंाउी है, यह पार वाला गांव है। लेकिन मेरा चाचा वहीं पर रहता है। अगर जंग हुई तो न मेरा घर रहेगा न मेरे चाचा का मकान।
लगभग 40 कुंबों वाला सिलीकोट दो हिस्सों में बंटा है। गांव का एक हिस्सा तारबंदी के पार है। निजामदीन ने कहा कि कल रात मेजर साहब आए थे। उन्होंने तार के पार रहने वाले हम दस कुंबों को यहां से पीछे जाने के लिए कहा है। सच पूछा तो बहुत डर लग रहा है। वर्ष 2003 में जंगबंदी के बाद हालांकि दो से तीन बार गांव पर गोले गिरे,लेकिन वह खेतों तक सामने फौजी मोर्च तक ही आए थे। लेकिन जिस तरह कल ख्वाजाबांडी पूरी तरह विरान हुआ, उसके बाद से हमें लगता है कि पाकिस्तानी फौज हमारे गांव में जमकर बमबारी करेगी। हम लोग बारामुला चले जाएंगे।
उड़ी सेक्टर के दाएं तरफ गुरेज सेक्टर के अग्रिम इलाकों में भी कमोबेश यही स्थिति है। बगतूर गांव के गुलाम हसन ने कहा कि पूरे इलाके में लोग डरे हुए हैं। हालांकि हमारे इलाके से अभी पलायन नहीं हुआ है,लेकिन एलओसी के पार से आने वाले गोले, हमारी पूरी जिंदगी बदल देंगे।
गुलाम हसन ने कहा कि वर्ष 1999 में जब करगिल की जंग हुई तो हमारे इस पूरे इलाके से 500 परिवारों को बेघर होना पड़ा था। सफीर चेची नामक एक अन्य ग्रामीण ने कहा कि 80 साल मेरी उम्र हो रही है। मैने सिर्फ बीते 13 सालों में ही
गोलाबारी की गूंज नहीं सुनी है। इससे पहले हर रोज पार से गोला गिरता था, यहां से भी गिरता था। मेरी मां और मेरा छोटा भाई पार से आए गोले के फटने से ही मारे गए थे। यहां कभी दिन में बाहर निकलना मौत को दावत देने के बराबर था। अब लगता है कि दोबारा वही डर और खौफ और मौत के साए के दिन आ रहे हैं।
दावर गांव के गुलाम मोहम्मद ने कहा कि बीते तीन चारों दिनों से हमारे इलाके में सैन्य गतिविधियां बहुत तेज हो चुकी हैं। अगर तनाव कम नहीं हुआ तो हमारे इलाके से पलायन तय है। हमारे इलाके में कई जगह तोपों व अन्य बड़े हथियारों कीतैनात हो गई है। उसने कहा कि हमारे इलाके में पाकिस्तानी गोलाबारी का ज्यादा खतरा है,क्योंकि किशनगंगा डैम हमारे गुरेज में ही बन रहा है और पाकिस्तान नहीं चाहता कि यह डैम बने। इसलिए हालात बिगडऩे पर वह यहां जरुर बड़े पैमाने पर हमला करेगा।
ग्रामीणों को दिखाना पड़ रहा है आईकार्ड
एलओसी के साथ सटे गांवों में ग्रामीणों की जांच पढ़ताल तेज हो गई है। स्थानीय ग्रामीणों को तारबदंदी के आर-पार जाने के लिए सुरक्षाबलों को अपना पहचान पत्र बताना अनिवार्य हो गया है। गुहाल्टा के रहने वाले नासिर खान ने कहा कि अगर किसी दूसरे गांव से हमारा कोई परिचित या रिश्तेदार हमारे पास आता है, या रात को रुकता है तो उसके बारे में निकटवर्ती सैन्य अथवा पुलिस चौकी को सूचित करने के लिए कहा गया है। इसके अलावा शाम छह बजे के बाद हमें घरों से बाहर घूमने की मनाही की गई है।
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उड़ी में हालात सामान्य
भारत-पाक के बीच मौजूदा सैन्य तनाव का कारण बेशक उड़ी में लगभग 12 दिन पहले हुआ आतंकी हमला है। लेकिन कस्बे में गहमा-गहमी को देखकर कोई अंदाजा नहीं लगा सकता है कि इसके साथ सटे अग्रिम इलाकों में लोगों के चेहरों पर जंग का खौफ है। हालांकि सैन्य गतिविधियां तेज हैं और अग्रिम इलाकों में आने जाने वाले ग्रामीणों की पड़ताल भी खूब हो रही है। लेकिन बाजार पूरा खुला है, स्थानीय स्कूलों में भी अवकाश नहीं है। इकबाल अहमद नामक एक स्थानीय नागरिक ने कहा कि यह इलाका जंग से बड़ी दूर है। अगर लड़ाई हुई तो वह आगे होगी,यहां नहीं। बाकी आप खुद देखो यहां वैसा कुछनहीं है जैसा टैलीविजन में दिखाया जा रहा है।
1971 की जंंग में गिरे थे तीन गोले
जंग के खतरे से बेशक सभी आशंकित हैं। लेकिन उड़ी कस्बे में रहने वालों को नहीं लगता कि कस्बे में पाकिस्तानी तोपों के गोले मार करेंगे। इकबाल लोन नामक एक स्थानीय नागरिक ने कहा कि जब 1971 की जंग हुई थी तो उड़ी हमारे कस्बे में सिर्फ तीन गोले गिरे थे। कस्बे से कई लोग पलायन कर गए थे। यहां फौजी गतिविधियां खूब थी, क्योंकि यहीं से अगले फ्रंट पर फौजी आते जाते थे। करगिल की जंग में भी यहां कोई गोला नहीं आया। लेकिन हाजीपीर की लड़ाई यहीं से आगे हुई थी। जंग के दौरान सिर्फ अग्रिम इलाकों तक ही गोलाबारी और रुटीन फायर सीमित रहा है। इसके अलावा यह पूरा इलाका पहाड़ी है,अगर पाकिस्तानी फौज एक पहाड़ चढेगी तो दूसरा पहाड़ चढऩे से पहले उसे वापस भागना पड़ सकता है।
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