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    पांचजन्य ने उठाया शाहबानो और जीएसटी का मुद्दा

    By Test1 Test1Edited By:
    Updated: Wed, 27 Jan 2016 09:36 AM (IST)

    गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ी साप्ताहिक पत्रिका पांचजन्य ने संपादकीय के जरिये विवादित शाहबानो प्रकरण और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) बिल को लेकर बहस छेड़ दी है।

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    नई दिल्ली। गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ी साप्ताहिक पत्रिका पांचजन्य ने संपादकीय के जरिये विवादित शाहबानो प्रकरण और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) बिल को लेकर बहस छेड़ दी है। कहा कि ऐसी घटनाएं संविधान निर्माताओं की अपेक्षा के ठीक विपरीत हैं। पत्रिका का कहना है कि संविधान निर्माताओं ने जिस भावना से देश को संविधान सौंपा था, हम उन पवित्र भावनाओं का ध्यान नहीं रख सके।

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    1947 में देश की संविधान सभा द्वारा स्वीकृत ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ इस देश के संविधान की प्रस्तावना का आधार बना। लेकिन कुछ घटनाएं बताती हैं कि इस आधार पर टिके रहने की संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं की कई बार राजनीतिक कारणों से उपेक्षा हुई। पत्रिका कहती है कि ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ अल्पसंख्यक, पिछड़े, आदिवासी जैसे वर्गों को पर्याप्त सुरक्षा की बात करते हैं। इसको लेकर बातें भी बहुत हुईं लेकिन क्या यह सच नहीं कि इन वर्गों को राजनीतिक हितों के लिए मोहरे की तरह इस्तेमाल किया गया। संसदीय प्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय भारतीय संविधान का दूसरा गुण है।

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    लेकिन शाहबानो के मामले में क्या हुआ? 62 साल की उम्र में पांच बच्चों की मुस्लिम मां जब अपने पति द्वारा अन्यायकारी तरीके से तलाक दिए जाने के बाद संविधान के तहत मुआवजे की गुहार लगाने पहुंची तो वोट बैंक की राजनीति करने वाले चुपचाप देखते रहे। क्या हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी कल्पना की होगी कि राजनीतिक बहुमत को तुष्टिकरण के हथियार और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पलटने वाले औजार के तौर पर आजमाया जाएगा। संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 369 के अंतर्गत जब संशोधन के विषयों का बंटवारा किया तब निश्चित ही उनकी मंशा नीति-निर्माताओं को ज्यादा से ज्यादा खुला हाथ देने की रही होगी। लेकिन वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक का क्या हुआ? शक्ति परीक्षण के तकनीकी प्रावधान की आड़ में जमीन पर लोगों का समर्थन और सियासी ताकत खो चुके लोग महत्वपूर्ण कर सुधार विधेयक को पटरी से उतारने का काम कर रहे हैं।

    संविधान में पिछड़े और आदिवासी के तौर पर संबोधित लोगों की सुरक्षा, सशक्तिकरण और इन्हें आगे बढ़ाने के सपने का जैसा अर्थ राजनीति ने लगाया उससे सामाजिक कटुता, द्वेष और संघर्ष बढ़े हैं। पहाड़, पठार, जंगल, घाटियों में रहने वाले भोले-भाले लोगों के हाथों में हथियार थमाने वाले घाघ वामपंथी, महानगरों में बैठकर उन्हें उस क्रांति का दूत बताते हैं, जिसके बारे में वे जानते भी नहीं हैं। दरअसल, संरक्षण के हकदार ऐसे सीधे-सरल लोगों और उनकी संस्कृति का खास तरह की वैचारिक भट्टी सुलगाए रखने के लिए ईंधन के तौर पर इस्तेमाल हुआ है।