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    किसी को भी नहीं फला चारा घोटाले का पैसा

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    Updated: Sat, 05 Oct 2013 10:48 AM (IST)

    यह एक ऐसे कारोबारी की दास्तान है, जिसका चारा घोटाले से कोई वास्ता नहीं था। 1997 -98 की बात है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर घोटाले की जांच शुरू हो गई थी। पटना हाईकोर्ट की निगरानी बेंच गठित हो गई थी। सीबीआइ के संयुक्त निदेशक उपेन बिस्वास बोरिंग रोड स्थित कोल इंडिया के गेस्ट हाऊस में जम चुके थे। छापेमारी चल रही थी।

    पटना [जागरण ब्यूरो]। यह एक ऐसे कारोबारी की दास्तान है, जिसका चारा घोटाले से कोई वास्ता नहीं था। 1997 -98 की बात है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर घोटाले की जांच शुरू हो गई थी। पटना हाईकोर्ट की निगरानी बेंच गठित हो गई थी। सीबीआइ के संयुक्त निदेशक उपेन बिस्वास बोरिंग रोड स्थित कोल इंडिया के गेस्ट हाऊस में जम चुके थे। छापेमारी चल रही थी।

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    पशुपालन की जमीन पर कैद हैं लालू

    असली कहानी अब शुरू होती है। घोटाले से लाभान्वित एक व्यक्ति की इस कारोबारी से मित्रता थी। उसने कारोबारी मित्र को बुलाकर आठ लाख रुपये रखने को दिया। कारोबारी ने एहतियात में रुपये का कुछ हिस्सा फाइनेंस कंपनी चला रहे अपने एक मित्र को दिया। कुछ हिस्सा अपने एक दुकानदार मित्र को दिया। मगर यह क्या? कुछ ही दिन में फाइनेंस कंपनी बंद हो गई। जिस दुकानदार को पैसा दिया गया था, उसे दूसरे कारण से जेल जाना पड़ा। और जब जांच का दौर थमा तो कारोबारी को अपने घर से पैसे लौटाने पड़े। और तो और उसकी खुद की स्थिति इतनी बिगड़ गई कि उसे कारोबार समेटकर पटना छोड़ना पड़ा।

    लालू के पास अब भी है चारा

    आजकल ऐसे उदाहरणों पर खूब चर्चा हो रही है। इसकी लाइनें चारा घोटाले के एक मामले [आरसी 20 ए/96] में सजा पाए आरोपियों से भी जुड़ती हैं। वस्तुत: यह चर्चा इसी सजा के बाद शुरू हुई है, जिसकी पंच लाइन है कि चारा घोटाले का रुपया किसी को नहीं फला। यह जहां भी, जिस रूप में भी पहुंचा बस बर्बादी ही हुई। कोई घुट-घुटकर मरा, तो किसी का घर-कारोबार चौपट हो गया। गंभीर बीमारी, जानलेवा जलालत और लगभग सबकुछ गवां देने की बात तो आम है। यह चर्चा स्वमेव यह सवाल भी उभारती है कि ऐसा पैसा किस काम का है, जिसको भोगा नहीं जा सकता है; जो जिंदगी लगभग आखिरी से हिस्से को जेल में पहुंचा देता है। हालांकि इसका बहुत मतलब नहीं है। संदर्भ, इस स्थिति से नसीहत लेने का है।

    बहरहाल, इस जनाब को देखिए। आइएएस अफसर थे। साफ-सुथरी छवि थी। ऊर्जा विभाग में सचिव थे। सामाजिक न्याय के दौर में कभी च्च्छी पोस्टिंग नहीं मिली। रिटायरमेंट के पहले दुमका के कमिश्नर बने। उसी दौरान दक्षिण बिहार [अब झारखंड] के अधिकांश जिलों की तरह दुमका की ट्रेजरी से भी अधिकाई निकासी हुई। नीचे से ऊपर तक के सभी अफसरों पर मुकदमा हुआ। वे भी आरोपी बन गए। जेल जाना पड़ा। ऐसा सदमा लगा कि कुछ दिन में चल बसे। घोटाले के 'किंगपिन' डा.श्याम बिहारी सिन्हा के घरेलू हालात, अपने आप में यह सवाल है कि 'किस काम का ऐसा पैसा?'

    चारा घोटाले की सुनवाई के दौरान सीबीआइ की विशेष अदालत के बरामदे में वे लोग [आइएएस अफसर] जमीन पर थककर बैठ जाते थे, जो कभी सरकार व सिस्टम चलाया करते थे। जाहिर तौर पर ये जेल भी गए। सार्वजनिक शर्म की इस चरम स्थिति ने बेहद सख्ती से मौज की रूटीन मेनटेन करने वाले इन अफसरों को बुरी तरह बीमार किया। जेल से अस्पताल और अस्पताल से जेल .., बड़ी लम्बी दास्तान है। एक आरोपी का तो बेटा पागल हो गया। बाद में आत्महत्या कर ली। खुद कई आरोपी मर गए, तो कुछ ने आत्महत्या की कोशिश की।

    घोटाले के रुपये भी उनके हो न सके। सीबीआइ व आयकर विभाग ने इसे जब्त किया हुआ है। कुछ संपत्ति तो दबंगों ने हथिया ली है।

    यह सबकुछ बिल्कुल स्वाभाविक माना गया है। चारा घोटाले को अंजाम देने के पीछे की समझ यही थी कि इसमें पकड़े जाने की गुंजाइश इसलिए नहीं है कि जानवर बेजुबान होते हैं। उनके नाम पर या उनके हिस्से की लूट हुई, तो वे कुछ बोलेंगे नहीं। सही बात है। घोटाला हुआ। लेकिन इसके परिणाम के स्तर पर यह च्च्चाई भी खुले में आई कि वाकई ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती है। जिसने भी पशुओं का अंश खाया, उसे लेने के देने पड़े। कोई सस्ते में निबटा तो किसी को भारी कीमत चुकानी पड़ी। इस घोटाले में कई लोग सायास शामिल थे, तो कई अनायास परिस्थितिजन्य कारणों से। ऐसे भी लोग हैं, जो कानूनी जद में तो नहीं आये लेकिन 'ऊपर वाले' की मार से बच नहीं पाए।

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