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मुजफ्फरनगर: पीड़ित परिवारों ने कहा, मर जाएंगे पर नहीं लौटेंगे गांव

मुजफ्फरनगर जिले में भड़की सांप्रदायिक हिंसा कई परिवारों को कभी न भरने वाला जख्म दे गई। पीड़ितों की आंखों में अभी भी हिंसा का खौफनाक मंजर है। फुगाना के छह गांवों के हजारों लोगों ने पलायन कर अन्य गांवों में पनाह ले रखी है। तावली में पनाह लेने वाले खरड़ निवासी किसी कीमत पर अब अपने गांव लौटना नहीं चाहते हैं। जिले में सबसे अधिक हिंसा फुगाना थाना क्षेत्र में हुई।

By Edited By: Published: Thu, 12 Sep 2013 08:39 AM (IST)Updated: Thu, 12 Sep 2013 08:55 AM (IST)
मुजफ्फरनगर: पीड़ित परिवारों ने कहा, मर जाएंगे पर नहीं लौटेंगे गांव

मुजफ्रनगर [जागसं]। मुजफ्फरनगर जिले में भड़की सांप्रदायिक हिंसा कई परिवारों को कभी न भरने वाला जख्म दे गई। पीड़ितों की आंखों में अभी भी हिंसा का खौफनाक मंजर है। फुगाना के छह गांवों के हजारों लोगों ने पलायन कर अन्य गांवों में पनाह ले रखी है। तावली में पनाह लेने वाले खरड़ निवासी किसी कीमत पर अब अपने गांव लौटना नहीं चाहते हैं। जिले में सबसे अधिक हिंसा फुगाना थाना क्षेत्र में हुई।

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हिंसा के बीच से बचकर खरड़, फुगाना, लाक, बहावड़ी, लिसाढ़, खेड़ा मस्तान व करौंदा महाजन के हजारों लोग तावली, जौला, बुढ़ाना, कसेरवा, बसी, हरसौली, लोई और मांडी आदि गांवों में शरण ले रखी है। तामली पहुंची 'दैनिक जागरण' की टीम को शमेदीन, दलशेर, इसराइल, जाहिदा, संजिदा आदि ने बताया कि आठ सितंबर को खरड़ में गुल्लू, उमरदीन व आसिम की दुकान में आग लगा दी गई और उनकी आंखों के सामने एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई। घर का दरवाजा खुला छोड़कर हम सब जान बचाकर भागे। पलायन करने वाले खरड़ के लोगों का कहना है कि गांवों में हिंसा की सूचना बार-बार एसओ, सीओ, एसपी क्राइम, एसएसपी को दी गई, लेकिन किसी ने सुध नहीं ली। पीड़ितों के मुताबिक तीन दिन से वे जैसे-तैसे लोगों के घरों में पनाह लिए हुए हैं, लेकिन प्रशासन और शासन ने खबर नहीं ली। खरड़ के ग्रामीणों ने जितना गुस्सा पुलिस, प्रशासन और शासन के खिलाफ है उससे अधिक जनप्रतिनिधि के प्रति है।

अमन की ओर मुजफ्फरनगर

'जनाजा यही से निकलेगा'

मुजफ्फरनगर [रवि प्रकाश तिवारी]। 'हम नफरत की भाषा नहीं जानते, आपस में अमन-चैन से रहते हैं। मैं गांव में निकाह के बाद डोली में आई थी, अब चाहे दंगा हो या कुछ और मैं पलायन नहीं करूंगी। मर जाऊंगी, भागूंगी नहीं। यहां से तो बस मेरा जनाजा ही निकलेगा।' दुल्हैड़ा की 75 वर्षीय जन्नो अकेली अल्पसंख्यक है, जो गांव में बची है। जन्नो कहती हैं कि यहां मेरा घर है और आस-पड़ोसी सम्मान देते हैं। दंगे का हम पर क्या असर। मैं हर रोज की तरह खाना बनाती हूं, खाती हूं, अपने पशुओं को खिलाती हूं। हां, रात में कोई अनहोनी न हो इसकी खातिर भतीजे समान कविंद्र के घर सोने चली जाती हूं। जन्नो ने बताया कि उनका गांव छोटा है। उन्होंने गांव छोड़ने से इन्कार कर दिया।

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