मुजफ्फरनगर दंगा: आ घर लौट चलें
मुजफ्फरनगर [रवि प्रकाश तिवारी]। दंगे की धधकती आंच में झ़ुलसने के डर से बड़ी संख्या में गांवों से पलायन हुआ। जहां हिंसा नहीं हुई, वहां से भी जो वर्ग अल्पसंख्या में था, घर-बार छोड़कर सुरक्षित स्थान के लिए निकल गया। अब चूंकि शांति बहाली की प्रक्रिया शुरू हो गई है और सुरक्षा आदि के बंदोबस्त भी किए जा रहे हैं। ऐस
मुजफ्फरनगर [रवि प्रकाश तिवारी]। दंगे की धधकती आंच में झ़ुलसने के डर से बड़ी संख्या में गांवों से पलायन हुआ। जहां हिंसा नहीं हुई, वहां से भी जो वर्ग अल्पसंख्या में था, घर-बार छोड़कर सुरक्षित स्थान के लिए निकल गया। अब चूंकि शांति बहाली की प्रक्रिया शुरू हो गई है और सुरक्षा आदि के बंदोबस्त भी किए जा रहे हैं। ऐसे में कई गांव अपने पलायन कर गए ग्रामीणों को घर वापसी की अपील गांव के प्रधान से लेकर बड़े-बुजुर्ग तक कर रहे हैं। इसी तरह के प्रयास से भौंराकला के मुंडभर गांव के पलायन करने वालों की वापसी हो चुकी है।
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काकड़ा के प्रधान चौधरी रवींद्र ने कहा कि उनके गांव के अधिकांश मुस्लिम परिवार शाहपुर और बसीकलां कैंप में रह रहे हैं। उन्होंने कुछ परिवारों से संपर्क साधा भी है, ताकि वे अपने घर लौट आए हैं। प्रधान सुरक्षा और विश्वास पैदा करने की खातिर दंगे में मौत के घाट उतारे गए विकास और राजबीर के परिजनों को भी लेकर मुस्लिम भाइयों को मनाने जाएंगे। रवींद्र ने कहा कि इस गांव में किसी पर कोई हमला नहीं हुआ था, लेकिन जब यह पता चला कि दो की मौत हो गई है, एक की हालत गंभीर और 60 से अधिक घायल हैं तो मुस्लिम समुदाय के लोग स्वत: भयभीत होकर चले गए। हम प्रशासन से भी इस पहल को अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रयासरत हैं।
कुछ इसी तरह की कोशिश बसीकलां के प्रधान हाजी मुर्सलीम और पूर्व प्रधान इरशाद पलायन कर गए दलितों को घर वापसी की मनुहार के लिए कासमपुर के राहत कैंप में पहुंचे। इन्होंने दलितों को सुरक्षा का भरोसा दिलाया, लेकिन रविदास मंदिर में शरण लिए हुए इस गांव के लगभग 350 लोगों ने एक बारगी लौटने से मना कर दिया। लोगों का कहना था कि उन्हें बसीकलां से ज्यादा खतरा नहीं जितना बाहरी लोगों से है। ऐसे में ये प्रधान भी शरणार्थियों की घर वापसी में प्रशासन के मदद की जरूरत बता रहे हैं।
न फीका ने छोड़ा गांव, न दीनू दूधिया ने :
काकड़ा में मुस्लिम आबादी लगभग 1500 के आसपास है, लेकिन दंगे में इस गांव के दो लोगों की मौत के बाद 10-12 परिवार ही रह रहे हैं। दहशत से जहां शेष लोग चले गए वहीं फीका और दीनू दूधिया जैसे बुजुर्ग और कारोबारी अब भी गांव में ही बने हुए हैं। 80 वर्षीय फीका का कहना है कि जिंदगी भर मजदूरी के बाद तो एक छोटा मकान बनाया है, आखिर उसे भी क्यों छोड़कर जाएं। इसी तरह दीनू दुधिया है जो ग्रामीणों से तड़के दूध लेकर जाता है और डेयरियों पर बेचता है। दंगे के बाद भी यह रूटीन नहीं बदला है। इनका कहना है कि ये काकड़ा में अपने ग्रामीणों के बीच सुरक्षित हैं और दूसरों को भी अपनी माटी पर लौट आना चाहिए।
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