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    इस बार थोड़ा बदला-बदला दिख सकता है संसद का मानसून सत्र

    By Sanjeev TiwariEdited By:
    Updated: Sat, 02 Jul 2016 10:57 PM (IST)

    पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद जहां विपक्ष का मनोबल गिरा है वहीं सरकार भी सदभाव के माहौल में जीएसटी विधेयक पारित कराना चाहती है।

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    जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। आगामी मानसून सत्र का तेवर और कलेवर पिछले कुछ सत्रों से थोड़ा जुदा हो सकता है। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद जहां विपक्ष का मनोबल गिरा है वहीं सरकार भी सदभाव के माहौल में जीएसटी विधेयक पारित कराना चाहती है। माना जा रहा है कि 18 जुलाई से शुरू हो रहे सत्र की शुरूआत में ही सरकार राज्यसभा में जीएसटी विधेयक रखेगी। उससे पहले सर्वदलीय बैठक में सभी दलों को यह समझाने की कोशिश होगी कि राजनीति की बजाय अपने अपने राज्यों की सुध लें। केंद्र भी उन्हें भरसक मदद की कोशिश करेगा।

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    अपने बूते तो राज्यसभा में भाजपा व राजग की स्थिति बहुत मजबूत नहीं हुई है लेकिन विपक्ष की धुरी जरूर कमजोर हुई है। ध्यान रहे कि अब तक कांग्रेस के नेतृत्व में दूसरे छोटे दल राजग के खिलाफ खड़े थे। लेकिन अब स्थिति अलग है। संसद के बाहर भी जिस तरह राजनीतिक नेताओं की गतिविधियां दिखी हैं उससे यह झलकने लगा है कि अब छोटे दल आगे बढ़कर नेतृत्व करना चाहते हैं।

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    गौरतलब है कि कांग्रेस ने जहां अपना इफ्तार रद कर दिया था वहीं लंबे अरसे बाद जदयू नेता नीतीश कुमार और शरद यादव ने दिल्ली में इफ्तार दिया और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से लेकर वाम व दूसरे दलों के नेता उसमें शामिल हुए। जाहिर है कि संसद मे रणनीति भी अब राज्यों के हिसाब से बनेगी। वैसे भी जीएसटी को लेकर पिछले महीने हुई बैठक में तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने समर्थन किया था। वामदल वाले केरल ने भी समर्थन किया था। हालांकि बाद में उनका रुख थोड़ा बदला।

    सूत्रों की मानें तो सरकार को इसका अहसास है कि यह माकूल मौका है। माना जा रहा है कि कांग्रेस के साथ एक दौर की बातचीत हो तो वह भी जीएसटी के समर्थन के लिए राजी हो सकती है। लिहाजा चुनावी राज्यों में हुई फजीहत की याद दिलाने की बजाय कांग्रेस से सामंजस्य बिठाने की कोशिश हो सकती है। हालांकि विपक्ष कैराना जैसे कुछ मुद्दों को उठाने की कोशिश करेगा लेकिन यह माना जा रहा है कि जीएसटी के समर्थन में आने वाले दलों के लिए यह बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। वैसे भी जदयू, तृणमूल, अन्नाद्रमुक जैसे दलों के लिए उत्तर प्रदेश चुनाव का बहुत बड़ा महत्व नहीं है। जबकि सपा और बसपा कांग्रेस के साथ खड़ा दिखना नहीं चाहेगी।

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