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    बदलती रही सरकारों के बीच पलायन के दर्द से कराहता रहा उत्तराखंड

    By Manish NegiEdited By:
    Updated: Mon, 16 Jan 2017 04:08 PM (IST)

    छोटे से राज्य के इतिहास में कितनी ही सरकारें आई गई लेकिन शायद ही ऐसी कोई सरकार हो जिसने यहां विकास किया हो।

    बदलती रही सरकारों के बीच पलायन के दर्द से कराहता रहा उत्तराखंड

    नई दिल्ली, (मनीष नेगी)। उत्तराखंड राज्य को बने 16 साल से ज्यादा का समय बीत चुका है। सालों चले लंबे आंदोलन के बाद 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड देश का 27वां राज्य बना था। देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलनकारियों ना जाने कितनी यातनाएं सहनी पड़ी थी।

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    उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद बने उत्तराखंड के लिए ये 16 साल पहाड़ की तरह ही गुजरे हैं। छोटे से राज्य के इतिहास में कितनी ही सरकारें आई गई लेकिन शायद ही ऐसी कोई सरकार हो जिसने यहां विकास किया हो। विकास के नाम पर राज्य के संसाधनों का जमकर दोहन हुआ। नदियों और जंगलों पर अतिक्रमण भी हुआ। जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ा। आज भी पहाड़ के लोग स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी मुलभूत सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं।

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    नतीजा ये रहा कि आज प्रदेश के पहाड़ पलायन के दर्द से कराह रहे हैं। 1 करोड़ 86 लाख 6 हजार 752 की कुल जनसंख्या में से लगभग आधी आबादी यहां के पहाड़ों पर रहती है। पहाड़ी इलाकों के विकास और पलायन को रोकने के लिए आंदोलनकारियों ने उत्तराखंड राज्य का सपना संजोया था। लेकिन, पहाड़ों पर विकास ना होने के कारण यहां की आबादी तेजी से शहरों की ओर पलायन कर रही है। सारे मुद्दों को पीछे छोड़ते हुए आज पलायन राज्य के नेताओं के लिए मुख्य मुद्दा बन गया है। नेताओं के लिए पलायन बड़ा मुद्दा तो बना लेकिन उतने बड़े मन से इस समस्या के निदान की कोशिश नहीं हुई।

    हालात ये है कि आज पहाड़ों के हजारों गांव वीरान हो चुके हैं। लाखों घरों पर ताला लटक गया है और खेत बंजर पड़े हैं। पहाड़ों में जनसंख्या का बोझ घटकर मैदानी इलाकों में बढ़ रहा है। कई स्कूलों में छात्रों की संख्या इतनी घट गई है कि उनको आप अंगुलियों पर गिन सकते हैं। आंकड़ों को खंगालने पर पता चला कि पिछले 16 सालों में 30 लाख से ज्यादा लोग पहाड़ों से शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में पलायन ज्यादा तेजी से बढ़ा है। स्थिति यही रही तो वो दिन दूर नहीं जब पहाड़ी अपने ही पहाड़ में अल्पसंख्यक कहलाएंगे।

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