बरेली लोकसभा सीट: सूरमाओं को नहीं मिला सियासी आसमां
बरेली लोकसभा सीट की बात करें तो बतौर धुरंधर पहला नाम अकबर अहमद डंपी का लिया जाता है। संजय गांधी के साथियों में रहे हैं। आजमगढ़ के बड़े खानदान से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता इस्लाम अहमद आइजी पुलिस थे। वह यहां आजमगढ़ से आकर दो मर्तबा चुनाव लड़े। प्रचार के दौरान जिधर निकलते भीड़ इकट्ठा हो जाती थी। दोनों ही बार चुनाव मे
बरेली। बरेली लोकसभा सीट की बात करें तो बतौर धुरंधर पहला नाम अकबर अहमद डंपी का लिया जाता है। संजय गांधी के साथियों में रहे हैं। आजमगढ़ के बड़े खानदान से ताल्लक रखते हैं। उनके पिता इस्लाम अहमद आइजी पुलिस थे। वह यहां आजमगढ़ से आकर दो मर्तबा चुनाव लड़े। प्रचार के दौरान जिधर निकलते भीड़ इकट्ठा हो जाती थी। दोनों ही बार चुनाव में कड़ी टक्कर हुई। पहला चुनाव 91 में कांग्रेस और दूसरा 2004 में बसपा के टिकट पर लड़े थे। इस बार भी संभावित उम्मीदवारों में उनका नाम चल रहा था लेकिन बसपा ने उन्हें बरेली के बजाय गोंडा से टिकट दिया है।
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उन्हीं की तरह इस्लाम साबिर बरेली के बड़े राजनीतिक परिवार से राजनीति में आए हैं। एक बार विधायक भी बने। राजनीति के गलियारों में उन्हें चाणक्य कहा जाता है। तरक्की के लिए पांच बार लोकसभा में किस्मत आजमा चुके हैं। कभी कांग्रेस तो कभी बसपा का दामन थामा। जीत की दहलीज एक बार भी नहीं लांघ पाए। अब आकर चुनाव मैदान से हटे हैं। अपनी जगह बहू आयशा इस्लाम को खड़ा किया है, जो सपा से किस्मत आजमा रही हैं।
चुनाव में किस्मत आजमाने वालों में एक बड़ा नाम मौलाना मन्नान रजा खां मन्नानी मियां का भी है, जो मजहब के रास्ते सियासत में आए। आला हजरत खानदान के चश्म-ओ-चिराग हैं। बेगम आबिदा अहमद के खिलाफ चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। बरेली की दूसरी सीट आंवला से सुधीर मौर्य भी दो मर्तबा किस्मत आजमा चुके हैं। जीते नहीं। इस बार बसपा ने काफी पहले टिकट दे दिया था लेकिन बाद में काट दिया। प्रोफेसर अलाउद्दीन खां भी आंवला में सांसद बनने पहुंचे, लेकिन जनता ने उनमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। कांग्रेस से इस बार भी दावेदार थे, लेकिन सलीम इकबाल शेरवानी को टिकट मिल गया। बाहरी उम्मीदवारों में डीएच अंसारी का नाम रहा, जो अमरोहा से आकर चुनाव हार गए।
पीलीभीत
बीएम सिंह और फूल बाबू दो ऐसे नाम हैं, जो विधायक बनने के बाद संसद में पहुंचने के तलबगार दिखे। अनीस अहमद खां उर्फ फूल बाबू ने तीन बार कोशिश की। तीनों बार नाकाम रहे। अब चौथी बार फिर से बसपा के टिकट पर मैदान में हैं। बीएम सिंह दो बार किस्मत आजमा चुके हैं, लेकिन सांसद बनने की ख्वाहिश पूरी नहीं हो सकी है। इस दफा अभी तक उनके चुनाव में उतरने के संकेत नहीं मिले हैं। ऐसा लग भी नहीं रहा है।
बदायूं
बाहुबली नेता डीपी यादव एक बार संभल से सांसद बने, एक बार राज्यसभा भी जाने का मौका मिला, किंतु बीते लोकसभा चुनाव में बदायूं से को यहां हार का मुंह देखना पड़ा। वह तमाम कोशिशों के बाद चुनाव नहीं जीत सके। परवीन आजाद कांग्रेस और शांति देवी शाक्य भाजपा से चुनाव लड़ीं। दोनों को जीत नसीब नहीं हो सकी। ब्रजपाल सिंह शाक्य ने भी भाजपा और बसपा से चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं पाए।
शाहजहांपुर
दिग्गजों को संसद तक पहुंचाने में शाहजहांपुर का रिकार्ड भी अच्छा नहीं रहा है। यहां से कोई चर्चित आज तक संसद नहीं पहुंच सका। साथ ही बाहरी को भी यहां के वोटर खास तवच्जो नहीं देते। पहले इलाके के दिग्गज प्रसाद परिवार का यहां कब्जा था। भाजपा से 1996 में स्वामी चिन्मयानंद लड़े लेकिन जीत नहीं सके। बसपा के अनीस बाबू भी यहां से किस्मत आजमा चुके हैं लेकिन सफल नहीं हो सके।
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