अनुच्छेद 35ए पर सियासत तेज, दी जा रही बड़े जन आंदोलन की धमकी
नेशनल कांफ्रेंस के डॉ. फारूख अब्दुला ने कहा है कि 35ए के साथ छेड़छाड़ हुआ तो अमरनाथ भूमि आंदोलन से भी बड़ा जनआंदोलन होगा।

अरविंद जयतिलक
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 35ए को लेकर सियासत फिर गरमा गई है। सियासी दलों का कहना है कि अगर इस अनुच्छेद को खत्म करने का प्रयास हुआ तो जनविद्रोह की स्थिति पैदा होगी। नेशनल कांफ्रेंस के डॉ. फारूख अब्दुला ने कहा है कि 35ए के साथ छेड़छाड़ हुआ तो अमरनाथ भूमि आंदोलन से भी बड़ा जनआंदोलन होगा। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कहती हैं कि अगर राज्य के कानूनों के साथ छेड़छाड़ हुआ तो कश्मीर में तिरंगा थामने वाला कोई नहीं होगा। दरअसल अनुच्छेद 35ए संविधान का वह हिस्सा है जो जम्मू-कश्मीर विधानसभा को लेकर प्रावधान करता है कि वह राज्य में स्थाई निवासियों को परिभाषित कर सके। जम्मू-कश्मीर के संविधान के मुताबिक स्थाई नागरिक वह व्यक्ति है जो 14 मई, 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या उससे पहले के 10 सालों से राज्य में रह रहा हो और उसने वहां संपत्ति हासिल की हो।
राज्य के बारह से आए लोगों को यहां स्थाई निवास और जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है। बहरहाल, 1947 के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से हजारों परिवार जम्मू-कश्मीर आए, लेकिन आज तक वे शरणार्थी का ही जीवन गुजार रहे हैं। राज्य सरकार उन्हें नागरिकता देने को तैयार नहीं है। इसी भेदभाव को देखते हुए 2014 में सर्वोच्च अदालत में याचिका दाखिल की गई कि अनुच्छेद 35ए के कारण संविधान प्रदत्त उनके मूल अधिकार जम्मू-कश्मीर राज्य में छिन लिए गए हैं, लिहाजा राष्ट्रपति के आदेश से लागू इस अनुच्छेद को केंद्र सरकार तत्काल रद्द करे। तब याचिका पर सुनावाई करते हुए शीर्ष अदालत ने केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार से जवाब मांगा और यह भी कहा था कि अनुच्छेद 35ए पर व्यापक बहस की जरूरत है। मामले की गंभीरता को देखते हुए शीर्ष कोर्ट ने इसे तीन न्यायाधीशों की पीठ को स्थानांतरित कर दिया है।
अब आइए इतिहास पर भी नजर डालते हैं। 14 मई, 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने एक आदेश पारित किया था। इसके जरिए भारत के संविधान में नया अनुच्छेद 35ए जोड़ा गया जो अनुच्छेद 370 का ही हिस्सा है। अनुच्छेद 35ए को लागू करने के लिए तत्कालीन सरकार ने अनुच्छे 370 में निहित शक्ति का ही इस्तेमाल किया था। पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के इसी अनुच्छेद 370 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र सरकार को चार सप्ताह में अपना रुख स्पष्ट करने को कहा। याचिका में दिल्ली हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई है जिसने इस याचिका को यह कह कर खारिज कर दिया था कि इस मुद्दे पर ऐसी ही मांग शीर्ष अदालत खारिज कर चुकी है। याचिकाकर्ता का दावा है कि कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 अस्थाई प्रावधान था, जो 1957 में राज्य की संविधान सभा के विघटन के साथ ही खत्म हो गया था।
याचिका के मुताबिक राज्य संविधान सभा के विघटन और जम्मू-कश्मीर के संविधान को राष्ट्रपति, संसद या भारत सरकार से मंजूरी नहीं मिलने के बावजूद अनुच्छेद 370 का जारी रखना संविधान के बुनियादी ढांचे के साथ धोखा है। असल में, 1947 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शेख अब्दुला को कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया और उनके कहने पर भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का प्रावधान किया गया। नेहरू ने कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुला को अनुच्छेद 370 तैयार करने के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर से भी सलाह-मशविरा करने को कहा। मगर डॉ. अंबेडकर ने इसका विरोध किया और इस अनुच्छेद को जोड़ने से मना किया लेकिन नेहरू नहीं माने और रियासत राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा 17 अक्टूबर 1949 को प्रस्ताव पेश कराकर कश्मीर के लिए अलग संविधान की स्वीकृति दे दी।
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उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो विधान, दो प्रधान और दो निशान के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन किया। परमिट व्यवसथा को तोड़कर श्रीनगर गए, लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जहां जेल में ही उनकी मृत्यु हो गई। इसे साजिशन हत्या भी बताया जाता है। अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों के मुकाबले विशेष अधिकार हासिल है। 1965 तक इस राज्य में मुख्यमंत्री की जगह सदर-ए-रियासत व प्रधानमंत्री हुआ करते थे, लेकिन 70 साल के इतिहास को देखें तो इस अनुच्छेद ने जम्मू-कश्मीर को तबाह किया है। इसके प्रावधान से घाटी में अलगाववादी शक्तियां मजबूत हुई हैं। कानून-व्यवस्था बदतर हुई है। जम्मू-कश्मीर देश की मुख्य धारा से कटा है। आजादी के साढ़े छ: दशक बाद भी भारतीय संविधान जम्मू-कश्मीर तक नहीं पहुंच पाया है। उसका कारण यह है कि जम्मू-कश्मीर का अपना अलग संविधान, विधान और निशान है। जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय के पास सीमित शक्तियां हैं।
वह जम्मू-कश्मीर के किसी कानून को चुनौती नहीं दे सकता और न ही कोई रिट जारी कर सकता है। भारतीय संविधान के भाग चार जिसमें राज्यों के नीति-निर्देशक तत्व हैं और भाग 4ए जिसमें नागरिकों के मूल कर्तव्य बताए गए हैं वह भी जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होता। अजीब सी स्थिति है। राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है। संविधान की धारा 356 और धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है वह जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होता। 1976 का शहरी भूमि कानून भी यहां लागू नहीं है। भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची जो अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित है और छठी अनुसूची जो जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।
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कुल मिलाकर अनुच्छेद 370 के प्रावधानों के मुताबिक जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में भारतीय संसद को केवल रक्षा, विदेश, वित्त और संचार मामलों में ही कानून बनाने का अधिकार है। कहना गलत नहीं होगा कि अनुच्छेद 370 का ही दुष्परिणाम है कि आज जम्मू-कश्मीर आतंक की जद में है और अलगाववादी शक्तियां इस राज्य को भारत से अलग करने की फिराक में हैं। अगर ऐसे में देश का सर्वोच्च न्यायालय जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष राज्य के दर्जे के सवाल और शरणार्थियों के अधिकारों पर गौर फरमाता है तो यह उचित ही होगा। उम्मीद करनी
चाहिए कि सभी पक्षों को सुना जाएगा।
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(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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