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    चुनाव परिणामों ने बदली राष्ट्रीय राजनीति की बुनियाद

    By Sachin BajpaiEdited By:
    Updated: Fri, 20 May 2016 07:22 AM (IST)

    पांच राज्यों के चुनावी परिणामों से कई हैरत अंगेज नतीजे निकले हैं। इस जनादेश के लिहाज से भाजपा जहां पहली बार सच्चे अर्थों में अखिल भारतीय पार्टी बन गई है,

    प्रशांत मिश्र,नई दिल्ली । पांच राज्यों के चुनावी परिणामों से कई हैरत अंगेज नतीजे निकले हैं। इस जनादेश के लिहाज से भाजपा जहां पहली बार सच्चे अर्थों में अखिल भारतीय पार्टी बन गई है, वहीं कांग्रेस अपना अखिल भारतीय दर्जा खोने के करीब खड़ी हो गई है। देश के चुनावी इतिहास में पहली बार उत्तरपूर्व असम में भाजपा का भगवा लहराया है। यह परिणाम भाजपा को दिल्ली व बिहार से मिली हार की हताशा को भूलने का सबब भी बनेंगे।

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    वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कार्यकाल की मध्यावधि में बचे आर्थिक एजेंडे को दृढ़तापूर्वक लागू करने का मनोबल भी जनता ने ही दे दिया है। पचास साल के खूनी राजनीतिक संघर्ष के बाद कांग्रेस ने वाममोर्चे के साथ पश्चिम बंगाल में जो गलबहियां डाली थीं वह दोनों के गले में कस गई है और ममता राज्य में एक बार फिर दमदार बहुमत के साथ वापस आ गई हैं। केरल का राजनीतिक मिजाज पुराना ही है कभी एलडीएफ तो कभी यूडीएफ। लेकिन इस बार भाजपा ने अपनी सांगठनिक ताकत प्रदेश में बढ़ाई है और खाता भी खुल गया। तमिलनाडु ने अम्मा पहली बार प्रदेश के राजनीतिक इतिहास को बदला है। अम्मा की ममता का हाथ तमिलनाडु में फिर जनता के सिर होगा। केंद्र शासित राज्य पुद्दुचेरी में कांग्रेस जीत से थोड़ा संतोष कर सकती है।

    पांच राज्यों के चुनाव परिणाम केंद्र की राजनीति में भी अपना थोड़ा असर डालेंगे। जयललिता का तमिलनाडु में फिर सत्तारुढ़ होना पश्चिम बंगाल में ममता की वापसी भाजपा के लिए जीएसटी के मद्देनजर मुस्कराने का सबब बन सकती है। ममता पहले ही वायदा कर चुकी हैं कि वह अब राज्यों का विकास न रोकते हुए जीएसटी का समर्थन करेंगी और जयललिता का जीएसटी पर अब तक ढुलमुल रवैया केवल चुनावी नजरिए से ही था। इधर असम तो जीएसटी के लिए भाजपा की झोली में आ ही गिरा है। यानी फिलहाल राज्यसभा में भाजपा के लिए भले ही अंकगणित न बदला हो लेकिन ममता और जयललिता से वह मदद की उम्मीदें संजो सकती है।

    इस चुनाव का दूसरा राजनीतिक निहितार्थ यह है कि कांग्रेस ने इन चुनावों में अपने दो राज्यों की सत्ता गंवा दी है। अब कर्नाटक को छोड़ दें तो वह देश में केवल पर्वतीय परिधि के छोटे राज्यों वाली पार्टी बनकर सिमट गई है। राष्ट्रीय स्तर पर इस जनादेश का बुनियादी बदलाव से मोदी का वही नारा चरितार्थ होता दिख रहा है जिसमें उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत की बात की थी। अब कांग्रेस के लिए जीवन मरण का प्रश्न है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह क्षेत्रीय दल बन नहीं सकती क्योंकि उसके आलाकमान राज्यों में जाकर बैठ नहीं सकते। राष्ट्रीय पार्टी की जमीन उसके पैरों से लगातार खिसकती जा रही है। कांग्रेस के आलाकमान को अतिथि कलाकार बनने, रोड शो करने, हाथ हिलाने और लिखित भाषण पढ़ने से अब काम नहीं चलने वाला, यह समझना होगा। साथ ही सोनिया गांधी को भी यह समझना होगा कि पर्दे के पीछे की राजनीति अब जनता स्वीकारने वाली नहीं है।

    पहली बार भाजपा ने पूर्वोत्तर के द्वार असम से अपना भगवा फहराना शुरू किया है। अब तक कांग्रेस या वाममोर्चे के शासन के लिए अभिशप्त पूर्वोत्तर को असम में भाजपा के रूप में एक नया विकल्प मिल गया है। यह बात पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी फैलेगी। असम का आनंद सर्वानंद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह नारा असम में फलीभूत हुआ है। साथ ही असम के कांग्रेस नेताओं में बढ़ता असंतोष और दिल्ली में इस असंतोष की अनसुनी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी है।

    इधर पश्चिम बंगाल में पांच दशकों के राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर कांग्रेस ने वाममोर्चे के साथ चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया था। लेकिन यह फैसला वाममोर्चे को भारी पड़ा। उसने ममता के हाथ अपनी जमीन खोने के बाद बची खुची जमीन कांग्रेस के हाथों खो दी। बंगाल में नारदा व शारदा का कोई असर नहीं हुआ। न ही शारदा घोटाले में शामिल पार्टी के लगभग आधा दर्जन मंत्रियों और लगभग इतने ही सांसदों पर भ्रष्टाचार की खरोंचों से कोई असर नहीं पड़ा। ममता की मर्दानगी इन सभी सत्य आरोपों पर भारी पड़ी।

    सभी चुनावी सर्वे, राजनीतिक विश्लेषकों को धता बताकर और राज्य के चुनावी रसायन को तोड़ते हुए जयललिता तमिलनाडु में एक बार फिर धमाकेदार शासन चलाएंगी। तमिलनाडु में राजनीतिक इतिहास रहा है कि कभी जयललिता और कभी करुणानिधि ही अदल बदल कर शासन करते रहे हैं। जयललिता ने पहली बार तमिलनाडु के राजनीतिक रसायन को बदला है। दूसरी तरफ केरल में वापसी कर वाममोर्चा भले ही खुश हो ले, लेकिन पश्चिम बंगाल में उसकी उखड़ती जड़ें उसे चैन की नींद नहीं लेने देगी। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस राज्य में भाजपा न पनपने पाए इसके लिए यूडीएफ और एलडीएफ दोनों ही तमाम सीटों पर अपने अपने वोट एक दूसरे को ट्रांसफर भी कराते रहे हैं। लेकिन उनकी यह राजनीतिक चाल अब धीरे धीरे इस राज्य में कुंद पडती जा रही है।

    इन पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से भाजपा को खुश होने के साथ ही कुछ सबक लेने की भी जरूरत है। पहली बात तो उसे असम की खुशी में संयम नहीं खोना चाहिए। दूसरी बात असम में नेतृत्व घोषित किये जाने से यह सबक भी लेना चाहिए कि दिल्ली और बिहार जैसे अपने लिए ऊर्जावान राज्यों में भाजपा बुरी तरह पराजित इसीलिए हुई क्योंकि जनता के सामने कोई विश्र्वसनीय चेहरा वह पेश नहीं कर पायी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नायब संगठन अध्यक्ष अमित शाह को इन परिणामों ने जहां एक तरफ खुश होने का मौका दिया है वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के चुनाव से निपटने की चुनौती भी बढ़ा दी है। ध्यान रहे कि यहां पर कांग्रेस नहीं है,यहां सपा और बसपा जैसे दो मजबूत दल हैं जिनका अपना कमिटिड वोट बैंक भी है। इसके बावजूद भाजपा ने अपने 73 सांसद यहीं से जीते थे। अगले साल होने वाले चुनाव में भाजपा क्या करिश्मा करेगी यह अब भविष्य बताएगा।

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