चीन दुनिया को ऐसे सपने दिखा रहा है, जिन पर वह खुद दावा नहीं कर सकता
चीन बदलती दुनिया को वह सपने दिखा रहा है जिसे लेकर वह भी पूरा दावा नहीं कर सकता। भारत का विरोध किया जाना बिल्कुल सही है और कूटनीतिक स्तर पर ऐसा होना भी चाहिए।
[सुशील कुमार सिंह]। भारत ने जब यह कहा कि कोई देश ऐसी किसी परियोजना को स्वीकार नहीं कर सकता जो उसकी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर उसकी मुख्य चिंता की उपेक्षा करती हो। तब इससे यह साफ हो गया कि चीन जिस दम के साथ वन बेल्ट, वन रोड योजना में आगे निकलना चाहता है उसे लेकर भारत की राय दुनिया से अलग है।
जिस तर्ज पर चीन अपनी इस योजना के माध्यम से दुनिया को एक उपहार देने की कोशिश कर रहा है और उसकी पेशगी भी कुछ इसी तरह की है उसे लेकर भले ही कइयों की राय कुछ भी हो पर इसमें कोई दो राय नहीं कि देशों की संप्रभुता, अखंडता और कूटनीति पर इसका फर्क आने वाले दिनों में दिखेगा।
भारत की चिंता यह है कि चीन पाक अधिकृत कश्मीर के रास्ते अपनी इस योजना को अंजाम देने की फिराक में है। इसके लिए पाकिस्तान पूरी तरह राजी भी है जबकि सच्चाई यह है कि पीओके के मामले में कोई भी कृत्य बिना भारत की अनुमति के संभव ही नहीं है। इसके बावजूद बीजिंग में सभी एकमंचीय हुए हैं। जाहिर है सभी का हित इस योजना से मेल खाता होगा। जिन पड़ोसी देशों के साथ भारत का व्यापक संवाद है, वे भी चीन के सपनों के साथ अपना हित देख रहे हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि भारत के पड़ोसियों को चीन साधने की फिराक में है।
हालांकि भारत ने अपने स्वभाव के अनुरूप कभी भी पड़ोसी देशों पर ज्यादती नहीं की और न ही उनकी संप्रभुता एवं अखंडता को कभी चोट पहुंचाई है। गौरतलब है बीते 13 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब कोलंबो के लिए दिल्ली से रवाना हुए तो श्रीलंकाई प्रधानमंत्री बीजिंग के लिए रवाना होने की तैयारी में थे। ऐसी समरसता कि एक देश जिस योजना का समर्थन करता है और भारत उसी से संवाद में हो यह भावना केवल भारत में हो सकती है। जिस प्रकार पड़ोसियों को चीन चारा डाल रहा है, उसकी इस रणनीति को भारत ने भांप भी लिया है। यही वजह है कि इस बैठक से भारत ने किनारा कर लिया है।
अगर भारत चीन-पाक अधिकृत गलियारा पर सहमति देता है तो यह संदेश भी चला जाएगा कि पीओके पर भारत के दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव हुआ है। इस तर्ज पर भी देखा जाए तो पीओके से गुजरने वाले आर्थिक गलियारे को लेकर भारत अब एक इंच भी पीछे नहीं हट सकता। जिस प्रकार चीन के राजदूत ने इस परियोजना का नाम बदलने की बात कही थी और बाद में पलटी मार दिया, उससे भी साफ है कि चीन की मंशा आर्थिक गलियारा तक ही सीमित नहीं है। देखा जाए तो चीन बदलती दुनिया को वह सपने दिखा रहा है जिसे लेकर वह भी पूरा दावा नहीं कर सकता। भारत का विरोध किया जाना बिल्कुल सही है और कूटनीतिक स्तर पर ऐसा होना भी चाहिए।
जाहिर है वन बेल्ट वन रोड के बहाने चीन अपनी धौंस को भी विस्तार देना चाहेगा और ड्रैगन की इस कुटिल चाल को भारत भी समझ रहा है पर इसकी काट उनके पास है या नहीं कह पाना मुश्किल है। भारत यह भी कहता रहा है कि चीन को हमारी संप्रभुता का ख्याल रखना चाहिए। गौरतलब है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ओबीओआर सम्मेलन में कहा कि बीजिंग दुनिया के सभी देशों की संप्रभुता का ख्याल रखता है। मगर कहने और करने में फर्क होता है। इस बात को भारत से बेहतर शायद ही कोई और देश समझता हो। 1954 के पंचशील समझौते में एक समझौता एक-दूसरे की संप्रभुता के ख्याल से भी जुड़ा था, जिसे 1962 में चीन ने तोड़ने में देरी नहीं की।
देखा जाए तो चीन जमीन से लेकर समुद्र तक विस्तार वाली सोच से जकड़ा हुआ है। दक्षिणी चीन सागर, तिब्बत, ताइवान और अरुणाचल प्रदेश को लेकर उसकी मन:स्थिति को देखते हुए उसकी संप्रभुता वाले दावे खोखले दिखाई देते हैं। खास यह भी है कि भारत, जापान और अमेरिका चीन की इस कुटिल चाल को जानते हैं। साथ ही समय-समय पर नाखुशी भी जाहिर करते हैं पर इसके आगे वे भी कुछ नहीं कर पाए हैं। हाल ही में दक्षिण चीन सागर में भारत, अमेरिका और जापान के नौ सैनिक बेड़ों ने मिलकर युद्धाभ्यास किया था तब चीन की भंवे तनी थी। इससे भी साफ है कि इस सागर पर चीन अपनी बपौती मानता है। फिलहाल जिस पाकिस्तान ने कश्मीर के कुछ हिस्से पर अवैध कब्जा किया हुआ है, उससे होकर अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने वाला एक तरफा निर्णय चीन की नीयत में खोट ही दर्शाता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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