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बारू का बम : परमाणु करार पर कई मंत्रियों को थी आपत्ति

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नीतियों की तरफदारी करते-करते कई बार उनके पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू कांग्रेस नेताओं से उलझ पड़ते थे। वैसे तो अमेरिका के साथ भारत के परमाणु करार पर पीएम के फैसले को लेकर कई मंत्रियों को आपत्ति थी, लेकिन मणिशंकर अय्यर ने सारी हदें पार कर दी

By Edited By: Published: Mon, 14 Apr 2014 01:46 AM (IST)Updated: Mon, 14 Apr 2014 01:47 AM (IST)
बारू का बम : परमाणु करार पर कई मंत्रियों को थी आपत्ति

नई दिल्ली [जागरण न्यूज नेटवर्क]। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नीतियों की तरफदारी करते-करते कई बार उनके पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू कांग्रेस नेताओं से उलझ पड़ते थे। वैसे तो अमेरिका के साथ भारत के परमाणु करार पर पीएम के फैसले को लेकर कई मंत्रियों को आपत्ति थी, लेकिन मणिशंकर अय्यर ने सारी हदें पार कर दी थीं।

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बारू अपनी किताब में लिखते हैं, 'एक बार वायुसेना के विमान में प्रधानमंत्री और मणिशंकर अय्यर यात्रा कर रहे थे। अय्यर को परमाणु करार से काफी परेशानी थी और उन्होंने यात्रा के दौरान ही डॉ. सिंह की आलोचना शुरू कर दी थी।'

किताब के मुताबिक, 'अय्यर परमाणु करार के समर्थन में नहीं थे। यहां तक कि उन्होंने कुछ पत्रकारों से कह डाला था कि अगर पीएम इस मुद्दे पर इस्तीफे की धमकी देते हैं तो उन्हें जाने देना चाहिए। यात्रा के दौरान अय्यर ने अमेरिका की भी खासी आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि उन्हें वामपंथी होने पर गर्व है, जिसे सोवियत संघ का समर्थन था, बजाय अमेरिका की दोस्ती के।' बारू को कहना पड़ा कि क्या वह स्टालिन की कैबिनेट के मंत्री हैं। क्या मैं स्टालिन का मीडिया सलाहकार हूं। ऐसी आलोचना पर स्टालिन का मीडिया सलाहकार सिर्फ एक काम करता कि वह हवाई जहाज का दरवाजा खोलकर उन्हें बाहर धकेल देता। बारू ने अय्यर को अहसास कराया कि वह पीएम के ही विमान में यात्रा के दौरान उनकी ही आलोचना कर सिर्फ इसलिए सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, क्योंकि मनमोहन सिंह च्च्छे इंसान हैं। वह न तो तानाशाह है और न ही पार्टी के प्रमुख।

बारू लिखते हैं कि डॉ. सिंह बमुश्किल ही किसी मंत्री को डांटते थे। उनकी नीति थी कि अगर कोई अपना काम नहीं कर रहा है, तो दूसरों का काम भी निपटा दो। अगर वह गृह मंत्री शिवराज पाटिल के काम से खुश नहीं थे, तो वह खुद ही उनका काम करने लगते थे।

एक मौके पर आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री ने पूरी जानकारी लेने के लिए बैठक बुलाई। गृह सचिव और खुफिया ब्यूरो प्रमुख समय से पहुंच गए, लेकिन शिवराज पाटिल देरी से पहुंचे। हम लोगों के बीच मजाक हुआ कि वह अपने कपड़े बदल रहे होंगे। उनका इंतजार करने के बजाय पीएम ने बैठक शुरू कर दी।

पढ़ें : जनता पहले से जानती है संजय बारू की किताब का सच : आडवाणी

ईजीओएम से पीएमओ को मिले जख्म

एक समय आया भी जब 2007 में 50 से ज्यादा मंत्रिसमूहों (जीओएम) का गठन हो गया था, जो समय के साथ लगातार बढ़ते जा रहे थे। पीएम के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू अपनी किताब में लिखते हैं, 'इस पर मतभेद हो सकते हैं कि इन अधिकार प्राप्त मंत्रिसमूहो (ईजीओएम) का गठन प्रणब मुखर्जी सरीखे बड़े नेताओं को महत्व देना था या फैसलों को टालने का तरीका, ताकि वे खुद फैसले लेते हुए नजर न आएं, लेकिन हकीकत यह है कि ये समूह प्रधानमंत्री कार्यालय को खुद दिए गए घाव जैसे थे।'

कांग्रेस कोर ग्रुप पार्टी और सरकार का प्रभावी प्रबंधन बोर्ड बन चुका था। हर शुक्रवार को पीएम आवास 7 आरसीआर में कोर ग्रुप की बैठक होती थी। इसमें संप्रग के सहयोगी दलों को शामिल नहीं किया गया था। पारंपरिक तौर पर राजनीतिक मामलों पर कैबिनेट समिति (सीसीपीए) उच्चस्तरीय नीतिगत मसलों पर फैसला लेती है। सीसीपीए कम्युनिस्ट पोलितब्यूरो के दर्जे की समिति थी। हालांकि, पीएम और सोनिया गांधी सीसीपीए के सदस्य नहीं थे। नतीजतन डॉ. सिंह के कार्यकाल में बमुश्किल ही कभी सीसीपीए की बैठक हुई हो। डॉ. सिंह ने एक संस्थागत पहल मंत्रिसमूह (जीओएम) का असरदार तरीके से इस्तेमाल किया, जिसे पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी ने गठित किया था। इसके तहत वरिष्ठ नेताओं के समूह को नीति निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। नीतिगत मुद्दों पर फैसले के लिए बनाए जाने वाले मंत्रिसमूह में हर बड़ी पार्टी से एक बड़े नेता को शामिल किया जाता था। यह समूह किसी मसले को कैबिनेट के समक्ष भेजने से पहले विचार-विमर्श करता था। प्रणब मुखर्जी, शरद पवार, एके एंटनी और पी. चिदंबरम की अध्यक्षता में कई मंत्रिसमूहों का गठन किया गया। अर्जुन सिंह को राष्ट्रमंडल खेल-2010 के लिए गठित मंत्रिसमूह का अध्यक्ष बनाया गया था। शुरुआत में ही संकेत मिल गए थे कि राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी सही राह पर नहीं है।

जीओएम खुद में एक बेहतर और अच्छा विचार था। हालांकि, डॉ. सिंह ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए अधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह (ईजीओएम) का गठन कर दिया, जिसने प्रधानमंत्री के अधिकारों को खोखला कर दिया। मुख्य योजनाओं, परियोजनाओं और मुद्दों के लिए गठित ईजीओएम पूर्ण कैबिनेट की जगह लेने लगे। दरअसल, ईजीओएम को फैसले लेने का अधिकार था, जिस पर कैबिनेट को केवल मुहर लगानी होती थी। ईजीओएम ने प्रभावी रूप से पीएम के अधिकारों को कमजोर किया। दरअसल, इन ईजीओएम के अध्यक्ष सरकार के वरिष्ठ मंत्री ही होते थे। वे बिना पीएम से चर्चा किए योजनाओं को मंजूरी दे सकते थे। कैबिनेट के सबसे वरिष्ठ मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले ईजीओएम के मामले में यह तथ्य एकदम सटीक बैठता है। बारू लिखते हैं कि वह डॉ. सिंह के कदम से उलझन में थे। बारू लिखते है, 'एक बार मैंने पीएम को बताया कि बेटी की परीक्षाओं के कारण शायद मैं विदेश दौरे पर आपके साथ नहीं चल पाऊंगा, तो उन्होंने कहा कि अगर आप नहीं आ रहे हैं तो आपका काम कोई और कर देगा। कभी अपनी जगह खाली मत छोड़ो।'


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