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    156 साल पहले का वह सवेरा

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    Updated: Fri, 10 May 2013 01:21 PM (IST)

    इतिहास हमें अक्सर आईना दिखाता है और अच्छा यह है कि हम अक्स देखते हुए बहुत कुछ सीखते और गढ़ लेते हैं। हालांकि इतिहास के अनगिनत पन्नों में सुबह की तारीख का जिक्र कम मिलता है। यह अलग है कि भारत के इतिहास में मेरठ की एक खास सुबह को बड़े गुमान से जगह दी गई है। यह सवेरा आज से ठीक 156 साल पहले 10 मई, 1

    मनोज झा, मेरठ। इतिहास हमें अक्सर आईना दिखाता है और अच्छा यह है कि हम अक्स देखते हुए बहुत कुछ सीखते और गढ़ लेते हैं। हालांकि इतिहास के अनगिनत पन्नों में सुबह की तारीख का जिक्र कम मिलता है। यह अलग है कि भारत के इतिहास में मेरठ की एक खास सुबह को बड़े गुमान से जगह दी गई है। यह सवेरा आज से ठीक 156 साल पहले 10 मई, 1857 को आया था। फिर उस तारीख में जो कुछ हुआ, उसमें धीरे-धीरे हमारी चेतना और संस्कार की जड़ता मिटती चली गई।

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    इस सुबह के बाद नया विहान बेशक नौ दशक बाद 15 अगस्त, 1947 को आया, लेकिन मेरठ छावनी के इस सिपाही गदर ने ब्रितानी हुकूमत के भाल पर यह अमिट संदेश उकेर दिया कि दासता की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। आइए, करीब डेढ़ सदी पहले की उस सुबह की सैर पर निकलते हैं। ब्रितानी हुकूमत के जुल्म-ओ-सितम से छटपटाते तत्कालीन हिंदुस्तान के कई स्थानों पर असंतोष का लावा पक रहा था। बंगाल की बैरकपुर सैन्य छावनी में मंगल पांडे की बगावत की चिंगारी यहां मेरठ छावनी में पहुंच चुकी थी। अंग्रेजी फौज के हिंदुस्तानी सैनिकों में चर्बी वाले कारतूस के इस्तेमाल को लेकर पहले से ही असंतोष सुलग रहा था।

    अनुशासन के नाम पर अंग्रेज सैन्य अफसरों ने पुरानी और नई जेल में ऐसे सैकड़ों असंतुष्ट फौजियों और आमलोगों को लोहे की जंजीरों में जकड़ रखा था। मेरठ शहर और उसके देहात के इलाके इस अपमान और ज्यादती के खिलाफ महीनों से सुलग रहे थे। इतिहास के पन्ने साक्षी हैं कि 1857 की नौ मई बड़ी बेचैन और उमस की तारीख थी। देसी सैनिकों के अलावा आम जनमानस के चेहरों पर एक सख्ती, एक तनाव, सुलगती आंखें और भिंचती मुट्ठियां।

    अंग्रेज अफसरों को कई खुफिया सूचनाएं मिलीं भी, लेकिन शायद उन्हें इस बात का भान नहीं था कि बगावत का लावा मेरठ से फूटेगा। 10 मई की शांत सुबह के बीच छावनी के बैरकों के अलावा सदर बाजार और शहर कोतवाली इलाके की हलचल को भी अंग्रेज अफसरों ने अनदेखा करने की चूक दोहराई। फिर वही आश्वस्ति कि भला मेरठ में क्या हो सकता है? दूसरी ओर, मेरठ तो इतिहास गढ़ने की धुन में मगन था। लिहाजा शाम के धुंधलके में जैसे ही सदर बाजार और कोतवाली इलाके से हो-हल्ला और पकड़ो-मारो-काटो की आवाजें फिजां में गहराने लगीं, अंग्रेज अफसरों के शाम के पैमाने भी आशंका की हलचल में छलकने लगे। फिर रात भर शहर में अंग्रेजों के पीछे मुक्तिपायी भीड़ दौड़ती रही। इसमें सैनिकों के साथ-साथ आमलोग भी थे।

    ये मतवाले लिंग और उम्र का भेद विस्मृत कर सिर्फ गोरी चमड़ी देख हमला कर रहे थे। रात भर के इस अभियान में नई और पुरानी जेलों से करीब नौ सौ कैदियों की बेड़ियां लुहारों ने खुलेआम जेलरों की आंखों के सामने काट डालीं। आजाद कैदी भी मतवाली भीड़ का हिस्सा बन गए और रातभर अंग्रेज अफसरों के घर और बैरक जलाए गए। राष्ट्रीय संग्रहालय में 10 मई की मध्यरात्रि को सुलगती छावनी के कई रेखाचित्र मौजूद हैं, जो यह बताने के लिए काफी हैं कि मेरठ ने स्वाधीनता की अलख जगा दी थी। इसी राह पर चलते हुए हमने 15 अगस्त, 1947 को दासता को हमेशा-हमेशा के लिए पैरों तले रौंद डाला।

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