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    बेटे बेटियों की बराबर हो कद्र

    By Srishti VermaEdited By:
    Updated: Mon, 20 Mar 2017 02:33 PM (IST)

    बेटों पर झूठा गर्व और बेटियों से दोयम व्यवहार हकीकत है समाज की। अफसोस यह है कि उम्र के आखिरी पड़ाव में इस पर अफसोस ही बाकी बचता है...

    बेटे बेटियों की बराबर हो कद्र

    कमला के तीन बेटे और चार बेटियां थीं। मैं उससे जब पहली बार मिली तो उसका सबसे छोटा लड़का गोद में था। वो हमारे घर में दाई का काम करती थी और खाना भी बनाती थी। देखा जाए तो यथार्थ में वो एक गरीब स्त्री से ज्यादा कुछ नहीं थी, पर उसकी भी सपनों की दुनिया थी। यह उसके बच्चों के नाम से पता चलता था। उसने अपनी लड़कियों के बड़े ही साहित्यिक नाम रखे थे। ज्योत्सना, सुनीता, निर्मला, शकुन और लड़कों के नामों का तो कहना ही क्या-सब शाही खानदानी नाम! सबसे बड़ा भीमराज, उससे छोटा युवराज और सबसे छोटे का नाम था राज। दादी की उम्र में पहुंच चुकी कमला की एक बड़ी खासियत थी कि वो हमेशा अपने बेटे-बेटियों को परिवार छोटा रखने की सलाह देती थी।

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    कमला को अपने राजकुमारों पर बड़ा गर्व था। लड़कियों पर वो खामखां गुस्सा होती रहती थी लेकिन जब कमला के नाती-पोते हुए तो हमने उसमें परिवर्तन देखा। वो अब लड़कियों पर गर्व करने लगी थी। शायद इसलिए क्योंकि उसके लड़कों ने असली सूरत दिखानी शुरू कर दी थी। कमला हमारे यहां नौकरी करती थी और हमने उसे रहने के लिए घर भी दिया था, फिर भी उसके लड़कों ने उसे प्रताड़ना देकर फल बेचने को मजबूर किया ताकि घर चलाने के लिए और पैसे मिल जाएं। जब मैं पति और बेटे के साथ मुंबई आई तो मेरे वृद्ध ससुर ने वहीं रहने की इच्छा जाहिर की। कमला को हमने उन्हीं के साथ छोड़ दिया था ताकि उनकी ठीक से देखभाल हो सके।

    उसे पता था कि बाबू जी को कौन सी दवा देनी है, क्या खाना पसंद है और अगर तबियत ज्यादा बिगड़ जाए तो कैसे मेरी ननद से संपर्क करना है? ससुर जी के गुजरने के बाद भी कमला वहीं रही। वो घर की देखभाल करती थी। शाम को अपने नाती-पोतों के साथ हमारे घर में ही टीवी देखती और दरवाजा बंद करके वहीं कालीन पर सो जाती। सुबह होते ही वह फिर घर की दाई बन जाती। सफाई-धुलाई और अपने घर का भी काम करती। जब मैं बीच-बीच में मुंबई से घर वापस आती तो वो मेरी खास देखभाल करती। रात को वो मुझे आगाह कर देती कि मैं घर के दरवाजों को ठीक से बंद करके सोऊं क्योंकि उसको अपने लड़कों की नीयत पर भरोसा नहीं था। साल में एक-दो बार वो हमसे मिलने मुंबई आती थी, अपनी बड़ी नातिन के साथ।

    वो वहां छोटी-मोटी खरीददारी भी करती ताकि पीछे छूटे नाती-पोतों के लिए भी कुछ न कुछ ले जाए। हम जब भी उससे रात को रुकने को कहते वो मना कर देती क्योंकि उसे अपने बच्चों की फिक्र रहती थी। आखिरी बार जब कमला मुंबई आई तो उसके साथ उसकी 11 साल की नातिन थी। वो जिद करके उसे बाजार ले गई। जब वो वापस आए तो कमला बिल्कुल बेहोशी की हालत में थी। हमने उसे अस्पताल में दाखिल कराया जिससे वो वापस सफर करने की स्थिति में तो आ गई पर घर पहुंचकर उसकी तबियत बिगड़ती ही गई। आखिरकार उसने बिस्तर पकड़ लिया। अंतिम दिनों में उसका गुजारा मेरे भेजे गए पैसों से होता रहा।

    कमला अब चल बसी है। एक जिंदगी खत्म, सब भूल गए उसे। अपनी निशानी के तौर पर वो अपने बच्चों और उनके बच्चों को छोड़ गई। मरने के बाद उसकी लड़कियों ने मिलकर पैसे इकट्ठे किए ताकि उसका दाह-संस्कार हो सके। वही लड़कियां, जो बचपन में बिना वजह डांट खाती रहती थीं। राजसी नाम वाले निकम्मे लड़कों ने उसकी मौत में भी पैसा कमाने का अवसर देखा और हमसे पैसे मांगे। कमला पूरी जिंदगी संघर्ष में काटती रही। उसने अपने बच्चों को एक अच्छी सलाह तो दी कि परिवार छोटा रखा जाए पर मैं सोचती हूं कि उसने अपने बच्चों को ये भी सिखाया होता कि हर व्यक्ति को अपनी बेटियों की भी उतनी ही कद्र करनी चाहिए, जितनी बेटों की! (लेखिका प्रख्यात पत्रकार हैं) अनुवाद: प्रवीण सिंह

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