सिखाने की पहल
आज के समय में पढ़ाने-रटाने की बजाय टीचर्स से अपने स्टूडेंट्स को सिखाने और खुद भी लगातार सीखते रहने की अपेक्षा की जा रही है। क्यों जरूरी है यह पहल, बता रहे हैं अरुण श्रीवास्तव.. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों टीचर्स डे पर देश भर के स्कूली बच्चों से सीधे संवाद करके एक नई परंपरा की शुरुआत की। उसी दौरान एक कार्यक
आज के समय में पढ़ाने-रटाने की बजाय टीचर्स से अपने स्टूडेंट्स को सिखाने और खुद भी लगातार सीखते रहने की अपेक्षा की जा रही है। क्यों जरूरी है यह पहल, बता रहे हैं अरुण श्रीवास्तव..
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों टीचर्स डे पर देश भर के स्कूली बच्चों से सीधे संवाद करके एक नई परंपरा की शुरुआत की। उसी दौरान एक कार्यक्रम में शिरकत करते हुए उन्होंने देश भर के अध्यापकों का आह्वान किया कि वे बच्चों को पढ़ाने और रटाने की बजाय उन्हें ज्यादा से ज्यादा सिखाने पर जोर दें। दरअसल, अपने इस संदेश के जरिए वे स्टूडेंट्स को व्यावहारिक यानी प्रैक्टिकल एजुकेशन देने पर जोर दे रहे थे, ताकि उनका भरपूर स्किल डेवलपमेंट हो सके।
इस मामले में 2009 में आई लोकप्रिय फिल्म 'थ्री इडियट्स' को शायद ही कोई भुला पाए। इस फिल्म में रैंचो बने आमिर खान अपने प्रैक्टिकल अप्रोच की वजह से ही कॉलेज के प्रिंसिपल सहस्त्रबुद्धि (जिसे स्टूडेंट वायरस नाम से जानते हैं) बने बोमन ईरानी के आंख की किरकिरी बने रहते हैं, लेकिन जब वह अपने इनोवेटिव उपाय से उनकी बड़ी बेटी की जान बचाता है, तब उनकी आंखें खुल जाती हैं। कॉलेज से जाने के बाद कोई खोज-खबर न मिलने के बाद एक दिन उसके दोनों कामयाब दोस्त राजू और फरहान उसकी खोज में निकलते हैं। साथ में रिया यानी करीना कपूर को भी ले लेते हैं। जब वे लेह में बच्चों के एक स्कूल में पहुंचते हैं, तो अजीबो-गरीब चीजें देखकर उन्हें विश्वास हो जाता है कि रैंचों वहीं कहीं है। सेंटीमीटर बन चुके कॉलेज के मिलीमीटर से मिलकर उनका भरोसा और पुख्ता हो जाता है। रैंचो यानी फुंगशुक वांगडु के स्कूल की खासियत यही है कि वहां बच्चों को क्लासरूम और ब्लैकबोर्ड की बजाय हर चीज प्रैक्टिकली सिखाई जाती है। इस तरीके से शुरू से ही उनकी स्किल डेवलपमेंट होती है।
बदलाव की जरूरत
हम सब जानते हैं कि भारत दुनिया की सबसे युवा आबादी वाला देश है, लेकिन इतनी बड़ी आबादी में हर किसी को उपयुक्त रोजगार न मिलना चिंता का विषय भी है। उद्योग जगत लगातार यह कह रहा है कि उसके पास काम तो है, पर उसे करने वाले काबिल लोग नहीं हैं। आखिर यह कैसी विडंबना है कि हमारे देश में काम तो है, फिर भी बेरोजगारों की फौज खड़ी है। जाहिर है इसके लिए सबसे बड़ा कारण हमारी पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को माना जा रहा है, जो सिर्फ डिग्री होल्डर्स पैदा कर रही है। आमतौर पर हमारे स्कूलों में किताबी पढ़ाई होती रही है, जिसका मकसद मुख्य रूप से परीक्षा पास करना होता है। यह स्थिति प्राइमरी से लेकर हायर एजुकेशन तक में दिखती है।
किताबी नहीं, काबिल बनें
हमारे यहां बहुतायत में ऐसे स्टूडेंट्स मिल जाएंगे, जिन्होंने आलराउंड अस्सी, नब्बे फीसदी या इससे भी ज्यादा अंक पाए होते हैं, लेकिन पढ़ाई में अव्वल माने जाने वाले यही स्टूडेंट करियर की दुनिया में एंट्री करने पर अक्सर फिसड्डी साबित हो जाते हैं। कॉरपोरेट वर्ल्ड ऐसे डिग्री होल्डर्स से खुद को दरकिनार कर लेता है, क्योंकि उसके क्राइटेरिया पर ये फिट नहीं बैठते। उन्हें सजावटी नहीं, बल्कि आउटपुट देने वाले एम्प्लॉयीज की जरूरत होती है। इंडस्ट्री सालों से चिंता जता रही है कि उसे एंट्री लेवल पर उसके काम के मुताबिक लोग नहीं मिल रहे, इसके बावजूद हमारा एजुकेशन सिस्टम बदलने को तैयार नहीं। कुछेक संस्थानों ने अपनी ओर से जरूर पहल की है और उन्हें इसका बेहतर परिणाम भी देखने को मिल रहा है, लेकिन दूसरे और खासकर सरकारी व सहायता प्राप्त संस्थान या फिर एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स को बिजनेस की दुकान मानकर चलाने वाले इस दिशा में अभी भी आंखें मूंदे हुए हैं।
पहल जरूरी
अब जबकि हमारे देश के प्रधानमंत्री ने भी स्किल डेवलपमेंट यानी प्रैक्टिकल एजुकेशन पर जोर देने की बात कह दी है, तो हमारे शैक्षणिक संस्थानों और रेगुलेटरी बॉडीज को अपने करिकुलम में समयानुसार बदलाव की पहल अविलंब शुरू कर देनी चाहिए। हालांकि इस दिशा में जल्दबाजी दिखाने की बजाय बहुत सोच-विचार करके ही कदम आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इसके लिए सरकार और उसके संबंधित जिम्मेदार विभागों द्वारा भी सिर्फ नारेबाजी की बजाय कारगर व्यावहारिक कदम उठाये जाने की जरूरत है, ताकि उसका फायदा हमारे स्टूडेंट्स को मिले और वे अपने इंट्रेस्ट के मुताबिक स्किल सीख सकें।
स्किल से कंप्रोमाइज नहीं
करिकुलम में बदलाव लाने की प्रक्रिया में शिक्षण संस्थानों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे पाठ्यक्रम में थ्योरी की बजाय प्रैक्टिकल एजुकेशन का अनुपात ज्यादा से ज्यादा रखें। इस पर प्राइमरी क्लासेज से ही अमल किया जाए, ताकि बच्चों को उनकी रुचि के मुताबिक आगे बढ़ने का अवसर मिल सके। हायर क्लासेज में पहुंचने पर उन्हें स्पेशलाइजेशन की सुविधा उपलब्ध कराई जाए, ताकि वे अपनी पसंद के क्षेत्र में एक्सपर्ट बन सकें।
इंडस्ट्री इंटरैक्शन हो मस्ट
हायर क्लासेज में प्रोफेशनल/टेक्निकल कोर्स को इंडस्ट्री के साथ सीधे जोड़ने की जरूरत है। अभी कुछ संस्थान गेस्ट फैकल्टी के तौर पर कभी-कभी इंडस्ट्री के एक्सपर्ट्स को तो बुलाते हैं, लेकिन यह नियमित नहीं होता। लेकिन ज्यादातर संस्थानों द्वारा ऐसी कोई पहल नहीं की जाती। ऐसे में उनके स्टूडेंट्स को सिर्फ किताबी नॉलेज ही मिल पाती है। एक पॉलिसी के तौर पर करिकुलम के एक बड़े हिस्से को इंडस्ट्री के एक्सपीरिएंस्ड एक्सपर्ट्स से पढ़वाया जाना चाहिए, ताकि वे रीयल एग्जाम्पल्स के साथ स्टूडेंट्स को समझा-सिखा सकें।
फैकल्टी रहे अपडेट
ऐसा न हो कि एक बार टीचर बन जाने वाले लोग खुद को किताबों तक ही समेट लें। उन्हें इंडस्ट्री विजिट और वर्ल्ड लेवल की प्रैक्टिकल जानकारी से अपडेट रहने के लिए मोटिवेट किया जाए। उन्हें इस बात का अहसास भी कराया जाए कि देश को मजबूत बनाने में उनका सबसे अहम योगदान है। जब वे बच्चों को क्वालिटी एजुकेशन देंगे, तभी देश तरक्की के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ेगा। टीचिंग कोई नौकरी नहीं, बल्कि देश के प्रति एक बड़ा कर्त्तव्य है।
* किताबी पढ़ाई की बजाय सिखाने यानी प्रैक्टिकल एजुकेशन पर ज्यादा जोर दिया जाए।
* टीचर्स अपने पेशे को महज नौकरी के रूप में लेने की बजाय कर्त्तव्य के रूप में लें।
* समय के साथ टीचर्स खुद को अपडेट करते रहें, ताकि स्टूडेंट्स को वर्ल्ड क्लास एजुकेशन दे सकें।
* पढ़ाई का उद्देश्य महज परीक्षा पास करना और डिग्री लेना न होकर स्किल डेवलपमेंट हो।
पढ़े: काम की पहचान