पानी की हकीकत जानिये सरकार
हिमाचल की राजधानी शिमला में जनता बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रही है। जो पानी मिल रहा है वह भी पीने लायक नहीं है। लेकिन सरकार व विभाग को इससे कोई सरोकार नहीं।
डॉ. रचना गुप्ता : लगभग एक वर्ष बीत गया जब हिमाचल की राजधानी शिमला में पानी की किल्लत के कारण लोग दूषित पानी पीते रहे, जिससे कई जाने चली गई। लेकिन इन 12 महीने में शासन ने धरातल पर क्या किया, इसकी चीखोपुकार का मंजर अलसुबह उपनगरों में देखा जा सकता है, जहां बूंद-बूंद के लिए जनता तरस रही है। सिंचाई एवं जनस्वास्थ्य विभाग व नगर निगम का कहना है कि पानी है ही नहीं। जो थोड़ा बहुत है वह या तो वीवीआइपी इलाको में बंट रहा है या छठे दिन घरों तक पहुंच रहा है। यह भी हकीकत है कि 120 दिन से मेघ भी नहीं बरसे है। निगम की चारदीवारी हो या सचिवालय में सचिवों के कमरे, मंथन-चिंतन पानी पहुंचाने को लेकर हो रहा है, लेकिन इस वक्त सबसे बड़ा शख्स कोई है तो पानी का जेई व कीमैन। जिसकी ताकीद को हर जरूरतमंद इसलिए खड़ा है कि दो बूंद मिल जाए।
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पानी के लिए क्या त्रासदी शिमला की होकर रह गई है, इसका इल्म 83 की उम्र पार कर चुकी आइपीएच मंत्री विद्या स्टोक्स या मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को कैसे हो सकता है, जिन्हे हर वक्त पानी उपलब्ध है? अफसर सुकून में है क्योंकि मातहतो को जी हुजूरी करनी है। लेकिन टुटू, ढांडा, संजौली, न्यू शिमला, विकासनगर, कसुम्पटी इत्यादि सहित नगर निगम के कई वार्डो में पानी गायब है। नल सूखे है व नहाने को बूंदे तक नहीं मिल रही।
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जो पानी मिल रहा है वह भी पीने लायक नहीं है। आइपीएच विभाग, स्वास्थ्य, नगर निगम व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सैंपल गवाह है कि जो पानी नलों में आ रहा है, वह पीने लायक नहीं। आइजीएमसी की माइक्रोबायो लैब तो इसे पीने लायक नहीं मानती। हैडपंपो से निकलता भूजल भी सुरक्षित नहीं। यानी अबकी सर्दियों में फिर आप खुद अपनी सेहत के जिम्मेदार है। यह भी साफ है कि पानी में अक्सर क्लोरीन की मात्रा जरूरत से ज्यादा डाली जा रही है।
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आइपीएच महकमे द्वारा चलाए जा रहे सीवेज ट्रीटमेट प्लांटो में पानी तकनीकी तौर पर ठीक नहीं हो रहा। यह बात अलग है कि आइपीएच विभाग यहां से पानी कम से कम अब पीने को नहीं दे रहा। लेकिन पानी की उपलब्धता के लिए क्या कदम सरकार ने उठाए, कम से कम यह धरातल पर नहीं दिख रहा। बैठकों में फैसले जरूर हो रहे है कि कहां-कहां से पानी लाकर जनता तक पहुंचाया जा सकता है। जिस शिद्दत से काम होना चाहिए वह हो क्यों नहीं रहा? कारण बड़े स्पष्ट है। बढ़ती आबादी के हिसाब से भविष्य की योजनाएं नहीं बनी। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है और इच्छाशक्ति है ही नहीं। उम्रदराज नेता यह देख ही नहीं पा रहे कि हो क्या रहा? नौकरशाह भी हर रोज महकमों की खो-खो के बीच निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर रहे। सरकारी विभागों व निगम के बीच तारतम्यता कहीं से झलकती नहीं। पैसे की कमी के रोने के बीच अदालती आदेश में झूलते महकमे के संचालक लाचार है।
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ऐसा नहीं कि पहाड़ो से बरसती चांदी के बीच नदियों में जल की कमी है। बड़े-बड़े बांधो में बिजली बनाने के लिए जल को रोका जा सकता है तो गलों को तर करने के लिए योजनाएं क्यों अटकी है? यह शासन की कार्यप्रणाली पर बड़ा प्रश्नचिह्न है।
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शिमला में नगर निगम के वार्ड बढ़ा दिए गए, अब मुहाने पर चुनाव है। लेकिन पेयजल जैसी सामान्य शब्दावली की गंभीरता क्या है, इसका अंदाजा पार्षद नहीं लगा सकते क्योकि दल है, जो राज करने के लिए झंडा उठाए है। विधायक है, जो जनता के बीच समस्या को लेकर निकलते नहीं। मंत्री है, जो कभी मौका मुआयना नहीं करते। अफसर है कि लालबत्तियों से बाहर नहीं आते। बात तब सुलझे जब मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह खुद इसका संज्ञान ले, मुख्य सचिव वीसी फारका मुआयना करें। आइपीएच मंत्री विद्या स्टोक्स जलस्रोतो का दौरा करें। सचिव अनुराधा ठाकुर जांचे कि कौन सा क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित है, विधायक सुरेश भारद्वाज बाहर घर-घर जाएं। मेयर व डिप्टी मेयर सरकार को कटघरे में खड़ा करें व नगर निगम कमिश्नर दो पाटो में न पिसे। तब देखे कि कैसे जनता को पानी नहीं मिले।
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