विश्व टीबी दिवस: टी.बी. को हराना है
दुनियाभर में प्रति सेकंड एक नया मनुष्य टी.बी. जैसे मर्ज से संक्रमित होता है। आइए जानते हैं, इस रोग और इसकी जटिलताओं को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?
मेडिकल साइंस के अनुसार टी.बी. लाइलाज रोग नहीं है,लेकिन रोगी द्वारा नियमित रूप से दवा न लेने के कारण अब इस मर्ज ने भारत समेत दुनियाभर में एम.डी.आर. और एक्स डी.आर टी.बी. के रूप में एक नई गंभीर स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न कर दी है। दुनियाभर में प्रति सेकंड एक नया मनुष्य इस मर्ज से संक्रमित होता है। आइए जानते हैं, इस रोग और इसकी जटिलताओं को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?
टी.बी. की बीमारी का मुख्य कारण माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस नामक जीवाणु (बैक्टीरिया) है। यह बैक्टीरिया लोगों के शरीर में निष्क्रिय अवस्था में हफ्तों से महीनों तक जीवित रह सकता है। अगर किसी मरीज की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, तो ऐसी स्थिति में यह बैक्टीरिया उस व्यक्ति को टी.बी. से ग्रस्त कर सकता है। जब भी कोई मरीज फेफड़े की टी.बी. की बीमारी से पीड़ित होता है, तो खांसते या छींकते समय ये जीवाणु हवा में फैलने लगते हैं और सामने वाले व्यक्ति के शरीर में सांस द्वारा फेफड़े के अंदर चले जाते हैं। कभी-कभी ये जीवाणु फेफड़े में या शरीर के अन्य भागों में निष्क्रिय रहते हैं। जब कभी शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, तो यह उस व्यक्ति में टी.बी.पैदा कर सकते हैं।
बीमारी के प्रकार
अधिकतर मरीजों में टी.बी. के जीवाणु फेफड़े को प्रभावित करते हैं। इस कारण फेफड़े की टी.बी. की बीमारी हो जाती है। 20 से 25 प्रतिशत लोगों में ये जीवाणु शरीर के किसी भी भाग को प्रभावित कर सकते हैं। खासकर आंत और हड्डी को। इस संदर्भ में गौरतलब है कि टी.बी. के सबसे अधिक संक्रमण दूसरे मरीजों को सिर्फ फेफड़े की टी.बी. से होते हैं।
फेफड़े की टी.बी. के लक्षण
-दो हफ्ते से ज्यादा वक्त तक खांसी आना। खांसी में बलगम या खून आना।
-लंबे समय तक बुखार रहना।
-सीने में दर्द होना।
-वजन में कमी होना।
आंत की टी.बी. के लक्षण
-पेट में दर्द होना। पेट में सूजन आना।
-आंत का फट जाना।
जांच के बाद इलाज
अधिकतर मरीजों में डॉक्टर मरीज का परीक्षण करके और उनके लक्षण जानकर बीमारी का अंदाजा लगा लेते हैं, लेकिन बीमारी का पता करने के लिए मुख्य तौर पर फेफड़े का एक्स-रे, बलगम की जांच, पेट का अल्ट्रासाउंड और गले की गांठों की जांच की आवश्यकता पड़ती है। सामान्य तौर पर टी.बी. की बीमारी 6 से 9 महीने में सही दवाओं के इस्तेमाल से ठीक हो जाती है। मरीज को यह सलाह दी जाती है कि दवाओं का प्रयोग नियमित तौर पर करें। दवाओं को निर्धारित अवधि से पहले छोड़ देने से दवाएं प्रभावहीन हो जाती हैं और जीवाणु इन दवाओं के लिए प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा लेते हैं। दवाएं तब तक जारी रखें, जब तक डॉक्टर परीक्षण करके इन्हें बंद करने की अनुमति न दें।
एम.डी.आर. टी.बी.
माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्यूलोसिस जीवाणु में जब दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता (रेजिस्टेंट) पैदा हो जाती है, तो उस पर प्रथम श्रेणी की दवाओं(फस्र्ट लाइन ड्रग्स)का प्रभाव नहीं पड़ता है, जो टी.बी. की बीमारी का एक भयानक रूप है। इसे मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट (एम.डी.आर.) टी.बी. कहते हैं। इस टी.बी. का इलाज करने के लिए डॉक्टर को दूसरे स्तर की दवाओं(सेकंड लाइन ड्रग्स) का प्रयोग करना पड़ता है, जो काफी हानिकारक होती हैं और लंबे समय तक लगभग 24 माह तक इनका सेवन करना होता है। इसके बाद भी इन मरीजों में मृत्युदर अधिक होती है। गौरतलब है कि एम.डी.आर टी.बी. की नई जांच शुरू हो चुकी है, जिसे एक्सपर्ट टी.बी. स्ट्रोक कहते हैं। इस जांच से यह पता चल जाता है कि अमुक व्यक्ति को टी.बी. है या नहीं और रोगी टी.बी. की जो प्रमुख दवा ले रहा है, वह कारगर है या नहीं।
एक्स.डी.आर.टी.बी.
अगर मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट टी.बी. की दवाओं का इस्तेमाल भी अनियमित रूप से किया जाता है, तो टी.बी. का जीवाणु और अधिक शक्तिशाली हो जाता है और इन दवाओं के प्रति भी प्रतिरोधक क्षमता बना लेता है। ऐसी स्थिति में इस बीमारी को एक्स. डी.आर. टी.बी. कहते हैं।
-डॉ एस पी रायसीनियर पल्मोनोलॉजिस्ट, कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हॉस्पिटल, मुंबई
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