धर्म की दीवार के आगे भी बसता है 'जहां', यहां मुस्लिम महिलाएं गाती हैं सावन के गीत
न पंथ पूछा और न ही घर, बस दिल का रिश्ता बना लिया। संतोष, माया, सावित्री के साथ ही आशिया, जायदा, शिरातन के लिए भी ऊषा आर्या दीदी बन गईं।
रेवाड़ी [अमित सैनी]। क्या बनाने आये थे और क्या बना बैठे, कहीं मंदिर बना बैठे तो कहीं मस्जिद बना बैठे। हमसे तो जात अच्छी उन परिंदों की, जो कभी मंदिर पे जा बैठे तो कभी मस्जिद पे जा बैठे। हम यहां उन परिंदों से भी कहना चाहते हैं कि कुछ इंसान भी धर्म की इस दीवार को ढहाकर आगे निकल गए हैं। सर्वधर्म सम्भाव को सही अर्थों में साबित करके दिखाया है महिलाओं की उस टोली ने जो इन दिनों बाल भवन में ट्रेनिंग पर आई हुई हैं।
हिंदू और मुस्लिम का भेद भूलकर ये महिलाएं बीते सात दिनों से सावन के गीत एक साथ मिलकर गा रही हैं। ज्यादातर महिलाएं मेवात से होने के साथ ही मुस्लिम समुदाय की हैं, लेकिन उन्हें सावन के गीत गाने व सीखने में कोई गुरेज नहीं है। सावन के गीत सिखा रही ऊषा आर्या को ये सभी महिलाएं दीदी कहने लगी हैं।
गीत गाते-गाते बहनें बन गई हैं सब
आंगनबाड़ी में कार्यरत 40 महिलाओं का समूह बाल भवन में ट्रेनिंग पर आया हुआ है। 16 जुलाई से ट्रेनिंग पर आई महिलाएं पुन्हाना, नूंह, फिरोजपुर झिरका, नगीना व तावडू से हैं। मेवात क्षेत्र से आई ज्यादातर महिलाएं मुस्लिम समुदाय से संबंध रखती हैं।
बाल भवन में ही योग की कक्षाएं चला रही हैं तथा शहर की कृष्णा नगर कॉलोनी निवासी ऊषा आर्या से इन महिलाओं की मुलाकात यहां के पार्क में हुई। ऊषा आर्या यहां पौधरोपण कर रहीं थीं और ये महिलाएं यहां पार्क में बैठकर उन्हें देख रहीं थीं।
ऊषा आर्या दीदी बन गईं
ऊषा ने इन महिलाओं को भी पौधरोपण के लिए बुला लिया और ये महिलाएं आपस में एक दूसरे को बहनें कहने लगीं। न पंथ पूछा और न ही घर, बस दिल का रिश्ता बना लिया। संतोष, माया, सावित्री के साथ ही आशिया, जायदा, शिरातन के लिए भी ऊषा आर्या दीदी बन गईं।
उसी दिन से इन महिलाओं ने सावन के गीत भी गाने शुरू कर दिए। 'मीठी तो कर दे री उम्मा कोथली, एक पपहिया रे बोला बाग में', 'झूला घला दे रे माया मेरी, बागन के बीच' गीतों के बोल गाते-गाते सात दिनों में अब आशिया, जायदा और शिरातन को भी याद हो गए हैं।
धर्म इंसानियत से बड़ा नहीं होता
'भारत की बंसी बाज रही, सरकार बदल गई भैय्या ' आदि गीतों में राजनीतिक कटाक्ष भी हैं। ऊषा आर्या का कहना है कि धर्म इंसानियत से बड़ा नहीं होता। वे जब गीत गाती हैं तो उन लोगों को एक पल के लिए भी ऐसा नहीं लगता कि उनके पंथ अलग हैं। वे न सिर्फ हमारे सावन के गीत गा रही हैं बल्कि हम भी उनके पारंपरिक गीतों को सीख रहे हैं।
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