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अलविदा इमाम साहब

चरित्र अभिनेता के रूप में सर्वाधिक चर्चा पाने वाले कलाकार थे ए के हंगल। उन्होंने अपने पूरे फिल्मी करियर में वैसे तो लगभग सवा दो सौ फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें से कुछ भूमिकाएं तो पूरी फिल्म में छाई हुई थीं, लेकिन फिल्म शोले में निभाई उनकी नेत्रहीन इमाम साहब की छोटी भूमिका ने लोगों में उनकी बहुत बड़ी पहचान बनाई।

By Edited By: Published: Mon, 27 Aug 2012 04:04 PM (IST)Updated: Mon, 27 Aug 2012 04:04 PM (IST)
अलविदा इमाम साहब

चरित्र अभिनेता के रूप में सर्वाधिक चर्चा पाने वाले कलाकार थे ए के हंगल। उन्होंने अपने पूरे फिल्मी करियर में वैसे तो लगभग सवा दो सौ फिल्मों में अभिनय किया, जिनमें से कुछ भूमिकाएं तो पूरी फिल्म में छाई हुई थीं, लेकिन फिल्म शोले में निभाई उनकी नेत्रहीन इमाम साहब की छोटी भूमिका ने लोगों में उनकी बहुत बड़ी पहचान बनाई। यह भी कह सकते हैं कि उन्हें इस फिल्म के रोल ने अमर बना दिया, जो शायद ही किसी चरित्र अभिनेता को नसीब हो।

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कंपकंपाती-थरथराती सी उनकी आवाज और भावनाओं को व्यक्त करने का उनका अंदाज, जब फिल्म शोले में रामगढ़ के वासियों के मध्य उनका इकलौता बेटा अहमद (सचिन) घोड़े पर लाश की शक्ल में आता है, गांव वाले खामोश हैं, कोई कुछ नहीं बोलता..। सभी सन्न हैं..। ऐसे में इमाम साहब की आवाज आती है, इतना सन्नाटा क्यों है भाई..? उन्हें वीरू यानी धर्मेद्र पकड़कर अहमद के पास लाता है। वे अहमद को छूते हैं और नाम लेकर रो पड़ते हैं। इस बात से गांव वालों और ठाकुर यानी संजीव कुमार में कहासुनी होती है और जय यानी अमिताभ बच्चन और वीरू को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं कि ये दोनों जब तक इस गांव में रहेंगे, लोग एक-एक कर मारे जाएंगे।

गब्बर सिंह की चिट्ठी पढ़ने के बाद, जिसमें लिखा है कि जय-वीरू को गांव वाले उनके हवाले कर दें, नहीं तो खैर नही है, लोग कहते हैं, हम इस बोझ, यानी जय-वीरू, को नहीं उठा सकते। इन बातों को सुनने के बाद रोते हुए इमाम साहब उठ खड़े होते हैं, कौन यह बोझ नहीं उठा सकता है भाई..? जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा बोझ क्या होता है? बाप के कंधों पर बेटे का जनाजा.., इससे भारी बोझ कोई नहीं है। मैं बूढ़ा यह बोझ उठा सकता हूं, तुम एक मुसीबत का बोझ नहीं उठा सकते..? भाई, मैं तो एक ही बात जानता हूं कि इज्जत की मौत जिल्लत की जिंदगी से कहीं अच्छी है..। बेटा मैंने बेटा खोया है मैंने.., फिर भी मैं चाहूंगा कि ये दोनों इसी गांव में रहें। आगे आपकी मर्जी..। तभी अजान की आवाज सुनाई देती है, तो इमाम साहब कहते हैं, मेरे नमाज का वक्त हो गया है। आज पूछूंगा खुदा से.., मुझे दो-चार बेटे और क्यों नहीं दिए गांव पर शहीद होने के लिए..? ये संवाद आज भी दर्शकों को सिहरा देते हैं। उस समय दर्शक खल चरित्र गब्बर सिंह के प्रति आक्रोश से भर जाते हैं। फिल्म में ऐसा माहौल ए के हंगल ने अपने संवादों और अनोखे अंदाज के जरिये बनाया था। तमाम फिल्मों में अपने सहज अभिनय से लोगों के दिल में बसने वाले शोले के इमाम साहब यानी ए के हंगल ने लंबे समय तक बीमारी से लड़ने के बाद कल दुनिया को अलविदा कह दिया..।

शोले के अलावा तमाम ऐसी फिल्में हैं, जिनमें ए के हंगल ने कमाल का या यह कहें कि यादगार अभिनय किया। उनकी शौकीन की भूमिका, जो रंगीन तबीयत के उम्रदराज इंदर सेन की थी, जिसे फिल्म में उसके दोस्त बने अशोक कुमार और उत्पल दत्त एंडरसन कहते हैं, को भला कौन भुला सकता है। इसमें तीनों एक युवा लड़की से दिल लगा बैठते हैं। फिर चितचोर के पितांबर चौधरी, खलनायक के शौकत भाई, मेरी जंग के वकील गुप्ता, राम तेरी गंगा मैली के बृजकिशोर, कमला के काका साब, अवतार के रशीद अहमद, खुद्दार के रहीम चाचा, नरम गरम के मास्टरजी, हम पांच के पंडित, जुदाई के नारायण सिंह, सत्यम शिवम सुंदरम के बंसी चाचा, बिदाई के रामशरण, कोरा कागज के प्रिंसिपल गुप्ता, मेरे अपने और जवानी दीवानी के प्रिंसिपल, नमक हराम के बिपिन लाल पांडे, अभिमान के सदानंद, हीरा पन्ना के दीवान करण सिंह, बावर्ची के रामनाथ शर्मा, गुड्डी में गुड्डी के पिता की भूमिका को लोग कैसे भुला सकते हैं?

देखें तो ए के हंगल ने फिल्मों में जो भी भूमिकाएं कीं, वे उन चरित्रों में पूरी तरह ढल गए थे। वे जिन निर्माताओं की पसंद रहे वे थे ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार, बासु चटर्जी, देव आनंद और अनिल गांगुली। इन सब की फिल्मों में उन्होंने ज्यादा काम किया। उन्होंने कुछ हिंदी और अंग्रेजी सीरियलों में भी काम किया।

ए के हंगल का पूरा नाम था अवतार किशन हंगल। वे मूल रूप से कश्मीरी थे। उनका जन्म अविभाजित भारत के पेशावर, जहां उनके पूर्वज बस गए थे, में 1917 को हुआ था। दादा शंभुनाथ पंडित अंग्रेजों के शासनकाल में कलकत्ता हाईकोर्ट में पहले भारतीय जज बने। उस समय बिहार और बंगाल का बंटवारा नहीं हुआ था। पटना म्यूजियम में हाल तक क्वीन विक्टोरिया के साथ शंभूनाथ जी की एक पोट्रेट लगी हुई थी। कोलकाता में उनके नाम पर रोड और अस्पताल हैं। हंगल के पिता भी ब्रिटिश शासन के दौरान प्रतिष्ठित पद पर थे।

हंगल बचपन में बेहद चंचल थे। पढ़ाई में मन नहीं लगता था, किसी तरह मैट्रिक किया। जब युवा हुए तो कुछ करना है, यह सोचकर उन्होंने टेलरिंग शुरू की। इन्हीं दिनों उनका रुझान रंगमंच की ओर भी हुआ, फिर वे इसी में सक्रिय हो गए। उसी समय उनके परिजनों को कराची शिफ्ट होना पड़ा। यहीं उनकी शादी हुई। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन तेजी पर था। वे उसमें शामिल हो गए और कई बार जेल भी गए। वाम विचारधारा से ताल्लुक रखने के कारण हंगल भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दौरान भी जेल में रहे। जेल से वे इस शर्त पर छूटे कि आगे इस शहर में नहीं रहेंगे। वे 1949 में मुंबई आ गए। यहां आने के बाद उन्होंने एक टेलरिंग शॉप, जो दक्षिण मुंबई में थी, आनंद जेंट्स टेलर में काम करना शुरू किया। कुछ पैसे आए, तो बाद में क्रॉफर्ड मार्केट, जिसमें दिलीप कुमार की भी फल की दुकान थी, में अपनी दुकान खोल ली। हंगल अच्छी पेंटिंग भी किया करते थे। उनका रुझान रंगमंच में तो था ही। फिर वे कैफी आजमी और बलराज साहनी के करीब आए और उनके सुझाव पर इप्टा की स्थापना में जुट गए। उन्होंने नाटकों में अभिनय के साथ निर्देशन भी किया। कई नाटक लिखे। उन्हें मराठी नाटक देखना काफी पसंद था। वे मानते थे, उन दिनों मराठी नाटकों के विषय न केवल गंभीर होते, बल्कि कलाकार भी काफी टैलेंटेड थे। हंगल डॉ. श्रीराम लागू के जबर्दस्त फैन थे। हालांकि उन्होंने खुद कभी मराठी नाटकों में अभिनय नहीं किया। हां, उन्हें इन नाटकों के गाने इतने पसंद आए कि उन्होंने उस्ताद से संगीत सीखना शुरू कर दिया। उन्हें फिल्मों में काम करने के कई अवसर मिले, जिसे ठुकरा दिया, लेकिन बाद में जब समझ आया कि यह भी अभिव्यक्ति का एक अहम माध्यम है, तो काम करने के लिए तैयार हो गए।

हंगल साहब का अभिनय सफर फिल्म हमसे है जहां (2008) तक जरूर चला, लेकिन उन्होंने फिल्मों में नियमित रूप से काम करना 2000 में ही बंद कर दिया था। इस बीच उनकी लगान, हरिओम, पहेली आदि फिल्में आई। फिर वे अधिक बीमार रहने लगे। वे लंबे समय से फेफड़े में सूजन की समस्या से पीडि़त थे। अधिक उम्र होने की वजह से उन्हें दूसरी स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी थीं। अपने अंतिम दिनों में वे किसी व्यक्ति का साथ पाने के लिए लालायित रहते थे। पिछले 16 वर्षो से वे बेटे विजय हंगल, जो प्रोफेशनल फोटोग्राफर हैं, के साथ मुंबई के सांताक्रुज इलाके में किराये के घर में रह रहे थे। विजय ने उनकी तबियत खराब रहने के बाद से यानी 2000 में काम करना छोड़ दिया था। वे अपने पिता की सेवा में ठीक वैसे ही जुटे रहे, जैसे तमाम फिल्मों में हंगल साहब अपने काम में, अपने चाहने वालों के लिए जुटे रहते थे। ईमानदारी के साथ..।

रतन

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