बिहार की दादागीरी
झारखंड की जमीन से संबंधित तकरीबन अस्सी हजार नक्शे पटना में पड़े होने का मुद्दा बिहार सरकार की दादागीरी है। जब 15 नवंबर 2000 को विभाजन के बाद झारखंड अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया था, उसी समय ये नक्शे इस राज्य को उपलब्ध करा देना चाहिए था। इसके विपरीत दोनों ही राज्य इस मामले में मौन साधे रहे। जब इन नक्शों
झारखंड की जमीन से संबंधित तकरीबन अस्सी हजार नक्शे पटना में पड़े होने का मुद्दा बिहार सरकार की दादागीरी है। जब 15 नवंबर 2000 को विभाजन के बाद झारखंड अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया था, उसी समय ये नक्शे इस राज्य को उपलब्ध करा देना चाहिए था। इसके विपरीत दोनों ही राज्य इस मामले में मौन साधे रहे। जब इन नक्शों की जरूरत महसूस की जाने लगी तो बिहार से किया गया हर तरह का निवेदन निष्फल साबित हो रहा है। कुछ अरसा पहले पटना एक नए प्रस्ताव के साथ सामने आया कि झारखंड सरकार निश्चित रकम उपलब्ध करा दे तो इन नक्शों की जेरॉक्स कॉपी उपलब्ध करा दी जाएगी। इस दिशा में कदम आगे बढ़ाने के बावजूद बिहार सरकार का मौन रहस्यमय है। जल, जमीन और जंगल झारखंड की पहचान हैं। राज्य बनने के बाद स्वाभाविक रूप से झारखंड में रुपये का प्रवाह बढ़ा। इस कारण शहरीकरण में तेजी आई। गांवों में मूलभूत सुविधाओं की कमी तथा नक्सलियों और उग्रवादियों के बढ़ते दबदबे के कारण शहरों में आबादी का बोझ बढ़ने लगा। अपेक्षाकृत कम संपन्न और खराब आर्थिक स्थिति वाले लोग हालांकि शहरों का रुख नहीं कर सके, किंतु जमीन संबंधी जरूरतें उनकी भी कम नहीं हुई। ऐसे में नक्शे की जरूरतें भी बढ़ीं। सारा कुछ जानते-समझते हुए बिहार सरकार का मौन विकराल समस्या बनता जा रहा है।
झारखंड और बिहार के बीच पेंशन दायित्वों का भुगतान, टीवीएनएल के स्वामित्व सहित अनेक समस्याएं अभी भी बनी ही हुई हैं, किंतु जमीन के नक्शों की संवेदनशीलता कुछ अधिक ही है। इस विषय पर सचिव और मंत्री स्तरीय वार्ता का भी कोई फलाफल सामने नहीं आना दुर्भाग्यजनक है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री को ऊब कर कहना पड़ा है कि बिहार सरकार झारखंड की जमीन के नक्शों के हस्तांतरण पर सक्रियता नहीं दिखाती है तो यह मामला अदालत में ले जाना चाहिए। मुख्यमंत्री की इस सोच में कोई खोट नहीं कही जा सकती। इससे राज्य की बड़ी आबादी का हित जुड़ा हुआ है। राज्य सरकार को पहले ही कड़े कदम उठाने का निर्णय लेना चाहिए था। राजनीतिक अस्थिरता और कमजोर सरकारों के कारण यह मसला एक तरह से ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहा। देर आए, दुरुस्त आए की तर्ज पर यदि अभी भी ठोस कदम उठाया जाय तो राज्य को संतोष होगा। कहीं ऐसा न हो कि मुख्यमंत्री की कही बातें हवा में रह जाएं। अधिकारियों को तत्परता बरतनी होगी।
[स्थानीय संपादकीय, झारखंड]
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