पाकिस्तान का संकट
पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर से लगी सीमा पर जैसे हालात पैदा कर रखे हैं वे तो भारत के लिए चिंताजनक हैं ही, इस्लामाबाद की स्थितियां भी परेशान करने वाली हैं। पिछले वर्ष चुनावों के बाद एक सशक्त शासक के रूप में उभरे नवाज शरीफ इन दिनों चौतरफा संकट से घिरे नजर आ रहे हैं। इस संकट की जड़ में क्त्रिकेटर से नेता बने इमरान खान भी है
पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर से लगी सीमा पर जैसे हालात पैदा कर रखे हैं वे तो भारत के लिए चिंताजनक हैं ही, इस्लामाबाद की स्थितियां भी परेशान करने वाली हैं। पिछले वर्ष चुनावों के बाद एक सशक्त शासक के रूप में उभरे नवाज शरीफ इन दिनों चौतरफा संकट से घिरे नजर आ रहे हैं। इस संकट की जड़ में क्त्रिकेटर से नेता बने इमरान खान भी हैं और मौलाना से एक समाज सुधारक नेता के तौर पर तब्दील हुए ताहिर उल कादरी भी। हालांकि इन दोनों ने ही नवाज शरीफ सरकार के खिलाफ जो अभियान छेड़ा हुआ है वह अपने आप में अलोकतांत्रिक और अतार्किक है, लेकिन नवाज शरीफ उनसे निपटने में नाकाम साबित होते दिख रहे हैं। उनकी नाकामी उन्हें एक कमजोर शासक ही सिद्ध कर रही है। यह तब है जब पाकिस्तानी संसद ने उनकी तरफदारी करते हुए साफ तौर पर कहा है कि उन्हें इस्तीफा देने की जरूरत नहीं है। भले ही मौजूदा संकट में सेना खुद को तटस्थ दिखाने की कोशिश कर रही हो, लेकिन उसने प्रदर्शनकारियों को जिस तरह सघन सुरक्षा वाले क्षेत्र में जाने की इजाजत दी उससे तो यही लगता है कि वह नवाज शरीफ को कुछ संदेश देने की कोशिश कर रही है। सेना के साथ पाकिस्तान की न्यायपालिका की भूमिका भी नीर-क्षीर नहीं नजर आ रही है, क्योंकि उसने एक तरह से यही कहा है कि प्रदर्शनकारियों को संसद और उसके आसपास डटे रहने से रोका नहीं जाना चाहिए। नवाज शरीफ की मुश्किलें इसलिए और बढ़ती दिख रही हैं, क्योंकि इमरान खान सरकार से बातचीत से पीछे हट गए हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने सांसदों से त्यागपत्र देने और इस्लामाबाद की तरह से देश भर में शरीफ सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने को कहा है। 1यह सही है कि इमरान खान ने अच्छे-खासे समर्थक जुटा लिए हैं, लेकिन वे जिन मांगों को लेकर सरकार पर दबाव बनाए हुए हैं उनका कहीं कोई औचित्य नहीं। यह आश्चर्यजनक है कि करीब एक साल बाद उन्हें यह याद आया कि चुनावों के दौरान धांधली हुई थी और इसका सबसे अधिक खामियाजा उनकी पार्टी को भुगतना पड़ा। एक तो चुनावों के वक्त नवाज शरीफ सत्ता में नहीं थे और दूसरे यदि मान भी लिया जाए कि कहीं कोई गड़बड़ी हुई थी तो फिर उसे लेकर एक साल बाद आंदोलन छेड़ने का क्या मतलब? आश्चर्यजनक है कि वह नवाज शरीफ के इस्तीफे से कम के लिए राजी नहीं हैं। हालांकि वह अपने ऐसे रवैये के कारण एक घोर अतार्किक नेता के रूप में उभरे हैं, लेकिन पाकिस्तानी सेना और वहां की न्यायपालिका परोक्ष रूप से उनकी तरफदारी करती दिख रही है। यह संभव है कि नवाज शरीफ इस संकट से पार पाने में सफल रहें, लेकिन फिलहाल वह एक कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में उभर आए हैं। उन्होंने कमजोर नेता की अपनी छवि से भारत को भी निराश करने का काम किया है, क्योंकि वह न तो सीमा पर शांति बनाए रखने में सक्षम हो पा रहे हैं और न ही भारत से रिश्ते सुधारने की अपनी कोशिश में। नई दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने जिस तरह भारत सरकार की आपत्ति के बावजूद हुर्रियत नेताओं से वार्ता की उससे यही स्पष्ट हुआ कि या तो शरीफ यह वार्ता होने देना चाहते थे या फिर उनका अपने ही उच्चायुक्त पर कोई वश नहीं था।
[मुख्य संपादकीय]
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